Ratha Yatra 2023

Marut

Dharma

रथयात्रा काल महत्व

आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को, देव शयनी एकादशी के 9 दिन पूर्व, रथयात्रा का दिन है। वर्ष ऋतु का प्रारंभ होने को है। चातुर्मास रूपी साधना काल का प्रारंभ होने को है।

जैसे हम किसी लंबी यात्रा में जाने से पहले उमंग से पूर्व तैयारी में लग जाते है वैसे ही आध्यात्मिक प्रगति पथ पर गंभीरता से चल रहे मनुष्यों के लिए चातुर्मास एक महत्वपूर्ण काल खंड है! उसकी पूर्व तैयारी के रूप में है रथ यात्रा।

सुप्ते त्वयि जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम् ⁠। विबुद्धे त्वयि बुध्येत जगत्सर्वं चराचरम् ⁠।⁠। (६६।१५)

‘जगन्नाथ! आपके सो जानेपर यह सारा जगत् सो जाता है तथा आपके जाग्रत् होनेपर सम्पूर्ण चराचर जगत् जाग उठता है।’

दिन के अंत पर रात्रि है । वर्ष के अंत पर चातुर्मास है । दो ही ऐसे समय है जब इंद्रियों के अधिष्ठान(brain) अत्यंत प्रवृत्तिशील होते है । इस अधिष्ठान की प्रवृत्ति पर मन\बुद्धि\स्मृति\अहंकार का स्वास्थ्य निर्भर करता है । 24 घंटों के दिन में , 8 घंटे का एक अनुष्ठान अधिष्ठान में चलता है । एक ऐसा कर्मकांड की जिससे स्थिर हुआ स्वास्थ्य स्वधर्म में मदद करता है । दिन के सापेक्ष में जितनी निवृत्ति रात्रि में रखते है बस वैसे है अष्टमास के सापेक्ष में चातुर्मास में भी निर्वृत्त रहना है । जैसे रात्रि में (सूर्यास्त के बाद) सम्पूर्ण निवृत्ति असंभव है वैसे ही चातुर्मास में सम्पूर्ण निवृत्ति नहीं हो पाएगी। यथा शक्ति, भगवद नाम में रत रहना है ।

आधुनिक विज्ञान ने अब तक मात्र सूर्य अनुसार शरीर में चलती घड़ी (circadian clocks) को ही समझा है । चातुर्मास , चंद्र मास, ऋतु आधारित circadian clocks के निष्कर्ष भी आएंगे । प्रमाण के लिए रुकोगे की सनातन परंपरा में जीवन ढालकर उसके अमृत फल चखोगे ?

रथयात्रा दिशा और सूर्य स्नान महत्व

यात्रा का प्रारंभ दक्षिण से उत्तर दिशा में होता है । और आषाढ़ शुक दसमी को पुनः दक्षिण पथ पर रथ यात्रा होती है। स्कन्द पुराण अनुसार, ज्येष्ठ मास व्यतीत होनेपर(ग्रीष्म के अंत!) भगवान् सूर्यको रथपर विराजमान करके श्रेष्ठ द्विज अपनी भुजाएँ लगाकर उस रथको कुशस्थलीमें पहुँचाते हैं। उस समय उत्तर दिशाको आते हुए भगवान् सूर्यका जो दर्शन करता है, उसे अग्निष्टोम यज्ञका पूरा फल प्राप्त होता है। जो केशवादित्यके स्थानसे लौटे हुए रथका दर्शन करता है अथवा रस्सी पकड़कर स्वयं भी उस रथको खींचता है, वह अपने कुलका एवं पिता-पितामह आदि पितरोंका उद्धार कर देता है।

मेरी समझ से –

  • वर्षा के 2 मास तक सूर्य भगवान लगभग अदृष्ट रहेंगे। तो यह वर्षा से पहले होता सूर्य स्नान है जो आनेवाले चातुर्मास में शरीर रूपी रथ को संभाल सकता है।

जो दक्षिण दिशामें देवका संयमपूर्वक दर्शन करते हैं, वे स्वर्गलोकमें जाते हैं। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक श्रीसूर्यदेवकी परिक्रमा करते हैं, उनके द्वारा सात द्वीपोंवाली पृथ्वीकी प्रदक्षिणा हो जाती है।

आषाढ़ शुक्ल द्वितीया और आषाढ़ शुक्ल दसमी के दिन, भक्ति श्रम से (रथ खींच कर) सूर्य पूजा का महत्व है। इसके पीछे क्या विज्ञान है उस पर मंथन करना होगा।

रथ का आध्यात्मिक महत्व

सांख्य दर्शन के अनुसार शरीर के 24 तत्वों के ऊपर आत्मा होती है। ये तत्व हैं- पंच महातत्व, पाँच तंत्र माताएँ, दस इन्द्रियां और मन के प्रतीक हैं। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है। वह चलते समय शब्द करता है। उसमें धूप और अगरबत्ती की सुगंध होती है। इसे भक्तजनों का पवित्र स्पर्श प्राप्त होता है। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होती है। ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करती है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उस माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है।

रथयात्रा आध्यात्मिक महत्व

स्कन्द पुराण अनुसार – जो अज्ञानी और अविश्वासके पात्र हैं, उनके मनमें भी विश्वास उत्पन्न करनेके लिये भगवान् विष्णु प्रतिवर्ष यात्रा प्रारम्भ करते हैं। अंतःकरण में भक्ति भाव उत्पन्न करने हेतु, रथ यात्रा रूपी कर्मकांड प्रभावी कार्य करता है तो मेरी दृष्टि से, भगवान की यह यात्रा, भक्तों को साधना काल चातुर्मास की प्रेरणा देने बताई गई है।

आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से आषाढ़ शुक्ल दसमी , रथ यात्रा उत्सक के काल में मघा नक्षत्र भी पड़ता है। मघा नक्षत्र पितरोंका है, अतः वह पितरोंको अधिक प्रीति प्रदान करनेवाला है। उस नक्षत्रमें पुत्रोंद्वारा दिया हुआ श्राद्धका दान पितरोंको विशेष तृप्त करता है। पितृ, देव, ऋषि तृप्त होने पर ही आध्यात्मिक मार्ग सरल बनता है। पितरों का सीधा संबंध हमारे आनुवंशिक मानस से है। यह काल जन्मगत, वारसागत विकारों को दूर करने हेतु भी उत्तम है!

आषाढ़के शुक्ल पक्षमें पंचमी तिथि, मघा नक्षत्र और जगन्नाथजीका महावेदीपर आगमन और सरोवर स्नान —पितरोंको अक्षय प्रीति देनेवाला चतुष्पादयोग माना गया है।

  • आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को रथ यात्रा में भाग ले कर उत्तर दिशा में पद यात्रा करें
  • आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से , सात दिनोंतक मौनभावसे तीनों काल स्नान करे और तीनों संध्याओंमें कलशपर भक्तिपूर्वक भगवान्‌की पूजा करे। गायके घी अथवा तिलके तेलसे दीपक जलावे और उसे भगवान्‌के आगे रखकर रात-दिन उसकी रक्षा करे। दिनमें मौन रहे और रातमें जागरण करके भगवत्सम्बन्धी मन्त्रका जप करे। इस प्रकार सात दिन बिताकर आठवें दिन प्रातःकाल उठकर प्रतिष्ठा करावे। इस व्रतराजका विधिपूर्वक पालन करके मनुष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—चारों पुरुषार्थोंको अपनी रुचिके अनुसार प्राप्त करता है।
  • सात दिनोंतक वहाँ रथकी भलीभाँति रक्षा करके आठवें दिन उन सब रथोंको पुनः दक्षिणाभिमुख कर दे और वस्त्र, माला, पताका तथा चँवर आदिसे उनकी पुनः सजावट करे। आषाढ़ शुक्ला नवमीको प्रातःकाल उन सब भगवद्विग्रहोंको रथपर विराजमान करे। भगवान् विष्णुकी यह दक्षिणाभिमुख यात्रा अत्यन्त दुर्लभ है। भक्ति और श्रद्धासे युक्त मनुष्योंको इस यात्रामें प्रयत्नपूर्वक भाग लेना चाहिये। जैसे पहली यात्रा है उसी प्रकार यह दूसरी भी है। दोनों ही मोक्षदायिनी हैं। यात्रा और मन्दिरप्रवेश—ये दोनों मिलाकर भगवान्‌का एक ही उत्सव माना गया है। यह पूरी यात्रा नौ दिनकी होती है। जिन लोगोंने तीन अंगोंवाली इस यात्राकी पूर्णतः उपासना की है, उन्हींके लिये यह महावेदी महोत्सव सम्पूर्ण फल देनेवाला होता है। गुण्डिचामण्डपसे रथपर बैठकर दक्षिण दिशाकी ओर आते हुए श्रीकृष्ण, बलभद्र और सुभद्राका जो दर्शन करते हैं, वे मोक्षके भागी होते हैं, अर्थात् भगवान्‌के वैकुण्ठधाममें जाते हैं।

हम जगन्नाथपूरी न जा पाए तो क्या करना है?

  • भगवान मेरे साथ है उस भावना से आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को उत्तर दिशा में मंत्र जप करते करते पद यात्रा करें से सूर्य स्नान करे
  • भगवान मेरे साथ है उस भावना से आषाढ़ शुक्ल दसमी को दक्षिण दिशा में मंत्र जप करते करते पद यात्रा करें से सूर्य स्नान करे
  • घर पर रथ पर भगवान जगन्नाथ, बलभद्र, सुभद्रा जी की स्थापना करें । सात दिनोंतक मौनभावसे तीनों काल स्नान करे और तीनों संध्याओंमें कलशपर भक्तिपूर्वक भगवान्‌की पूजा करे। गायके घी अथवा तिलके तेलसे दीपक जलावे और उसे भगवान्‌के आगे रखकर रात-दिन उसकी रक्षा करे। दिनमें मौन रहे और रातमें जागरण करके भगवत्सम्बन्धी मन्त्रका जप करे।

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