Mahabharata and Process of Birth

Marut

Pregnancy

 

This is from Mahabharata. Think about it. माता-पिता के रूपमें आप जैसे क्षेत्रका निर्माण करोगे उसके अनुसार गुण-कर्म वाले जीव का आगमन होगा! Indirectly, whom do you wish to invite at home depends upon how you prepare for!

नवविवाहित अकस्मात ही बच्चे पैदा न करें! राष्ट्र निर्माण की नीव है शिक्षण है और शिक्षण का आधार , नवविवाहित युगलोंके धर्म शिक्षण और धर्म अनुकूल दिनचर्या स्थित करने में है !

जन्मतो गर्भवासं तु शुक्रशोणितसंभवम्।पुरीषमूत्रविक्लेदं शोणितप्रभवाविलम्।।

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तृष्णाभिभूतस्तैर्वद्धस्तानेवाभिपरिप्लवन्।` तथा नरकगर्तस्थस्तृष्णारज्जुभिराचितः।पुण्यपापप्रणुन्नाङ्गो जायते स यथा कृमिः।।

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मशकैर्मत्कुणैर्दष्टस्तथा चित्रवधार्दितः।नानाव्याधिभिराकीर्णः कथंचिद्यौवनं गतः।।

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कूर्मोत्सृजति भूयश्च रज्जुः स्वस्वमुखेप्सया।योषितं नरकं गृह्य जन्मकर्मवशानुगः।।

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पुरक्षेत्रनिमित्तं यद्दुःखं वक्तुं न शक्यते।कस्तत्र निन्दकश्चैव नरके पच्यते भृशम्।।

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वार्धक्यमनुलङ्घेत तत्र कर्मारभेत्पुनः।भगवान्संस्तुतः पश्चात्किं प्रवक्ष्यामि ते भृशम्’।।

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संसारतन्त्रवाहिन्यस्तत्र बुद्ध्येत योषितः।प्रकृत्याः क्षेत्रभूतास्ता नराः क्षेत्रज्ञलक्षणाः।तस्मादेवाविशेषेण नरोऽतीयाद्विशेषतः।।

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कृत्या ह्येता घोररूपा मोहयन्त्यविचक्षणान्।रजस्यन्तर्हिता मूर्तिरिन्द्रियाणां सनातनी।।

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तस्मात्तर्षात्मकाद्रागाद्बीजाज्जायन्ति जन्तवः।स्वदेहजानस्वसंज्ञान्यद्वदङ्गात्कृमींस्त्यजेत्।स्वसंज्ञानस्वकांस्तद्वत्सुतसंज्ञान्कृमींस्त्यजेत्।।

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शुक्रतो रसतश्चैव देहाज्जायन्ति जन्तवः।स्वभावात्कर्मयोगाद्वा तानुपेक्षेत बुद्धिमान्।।

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रजस्तमसि पर्यस्तं सत्वं च रजसि स्थितम्।ज्ञानाधिष्ठानमज्ञानं बुद्ध्यंहंकारलक्षणम्।।

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तद्बीजं देहिनामाद्दुस्तद्बीजं जीवसंज्ञितम्।कर्मणा कालयुक्तेन संसारपरिवर्तनम्।।

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रमत्ययं यथा स्वप्ने मनसा देहवानिव।कर्मगर्भैर्गुणैर्देही गर्भे तदुपलभ्यते।।

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कर्मणा बीजभूतेन चोद्यते यद्यदिन्द्रियम्।जायते तदहंकाराद्रागयुक्तेन चेतसा।।

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शब्दरागाच्छ्रोत्रमस्य जायते भावितात्मनः।रूपरागात्तथा चक्षुर्घ्राणं गन्धजिघृक्षया।।

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संस्पर्शेभ्यस्तथा वायुः प्राणापानव्यपाश्रयः।व्यानोदानौ समानश्च पञ्चधा देहयापनम्।।

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संजातैर्जायते गात्रैः कर्मजैर्ब्रह्मणा वृतः।दुःखाद्यन्तैर्दुःखमध्यैर्नरः शारीरमानसैः।।

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दुःखं विद्यादुपादानादभिमानाच्च वर्धते।त्यागात्तेभ्यो निरोधः स्यान्निरोधज्ञो विमुच्यते।।

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इन्द्रियाणां रजस्येव प्रलयप्रभवावुभौ।परीक्ष्य संचरेद्विद्वान्यथावच्छास्त्रचक्षुषा।।

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ज्ञानेन्द्रियाणीन्द्रियार्थान्नोपसर्पन्त्यतर्षुलम्।ज्ञानैश्च करणैर्देही न देहं पुननर्हति।।

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जीवोत्‍पत्ति का वर्णन करते हुए दोषों और बन्‍धनों से मुक्‍त होने के लिये विषयासक्ति के त्‍याग का उपदेश

भीष्‍म जी कहते हैं – भरतश्रेष्‍ठ ! रजोगुण और तमोगुण से मोह की उत्‍पत्ति होती हैं, तथा उससे क्रोध, लोभ, भय एवं दर्प उत्‍पन्‍न होते हैं । इन सबका नाश करने से ही मनुष्‍य शुद्ध होता हैं। ऐसे शुद्धात्‍मा पुरूष ही उस अक्षय, अविनाशी, परमदेव, अव्‍यक्‍तस्‍वरूप, देवप्रवर परमात्‍मा विष्‍णु का तत्‍व जान पाते है। उसी ईश्‍वर की माया से आवृत हो जाने पर मनुष्‍यों के ज्ञान और विवेक का नाश हो जाता है, तथा वे बुद्धि के व्‍यामोह से क्रोध के वशीभूत हो जाते हैं। क्रोध से काम उत्‍पन्‍न होता है और फिर काम से मनुष्‍य लोभ, मोह, मान, दर्प एवं अहंकार को प्राप्‍त होते है । तत्‍पश्‍चात् अहंकार से प्रेरित होकर ही उनकी सारी क्रियाऍ होने लगती हैं। ऐसे क्रियाओं द्वारा मनुष्‍य आ‍सक्ति से युक्‍त हो जाता है । आसक्ति से शोक होता है । फिर सुख-दु:खयुक्‍त कार्य आरम्‍भ करने से मनुष्‍य को जन्‍म और मृत्‍यु के कष्‍ट स्‍वीकार करने पड़ते है। जन्‍म के निमित्‍त से गर्भवास का कष्‍ट भोगना पड़ता है । रज और वीर्य के परस्‍पर संयुक्‍त होनेपर गर्भवासका अवसर आता है, जहाँ मल और मूत्र से भीगे तथा रक्‍त के विकार से मलिन स्‍थान में रहना पड़ता है। [Shlok  1 से 6]

वह अव्‍यक्‍त आत्‍मा ही देहधारी प्राणियों का बीज है और वह बीजभूत आत्‍मा ही गुणों के संग के कारण जीव कहलाता है । वही काल से युक्‍त कर्म से प्रेरित हो संसार चक्र में घूमता रहता है। जैसे स्‍वप्‍नावस्‍था में यह जीव मनके द्वारा ही दूसरा शरीर धारण करके क्रीडा करता है, उसी प्रकार वह कर्मगर्भित गुणों द्वारा गर्भमें उपलब्‍ध होता है।[Shlok 13-14]

बीजभूत कर्म से जिस-जिस इन्द्रिय को उत्‍पत्त्‍िा के लिये प्रेरणा प्राप्‍त होती है, रागयुक्‍त चित्‍त एवं अहंकार से वही-वही इन्द्रिय प्रकट हो जाती है। शब्‍द के प्रति राग होने से उस भावितात्‍मा पुरूष की श्रवणेन्द्रिय प्रकट होती है । रूप की प्रति राग होने से नेत्र और गन्‍ध ग्रहण करने की इच्‍छा होने से नासिका का प्राकटय होता है। स्‍पर्श के प्रति राग होने से त्‍वगिन्द्रिय और वायु का प्राकटय होता है । वायु प्राण और अपान का आश्रय है । वही उदान, व्‍यान तथा समान है। इस प्रकार वह पाँच रूपों में प्रकट हो शरीर यात्रा का निर्वाह करती है। मनुष्‍य जन्‍मकाल में पूर्णत: उत्‍पन्‍न हुए कर्मजनित अंगों और सम्‍पूर्ण शरीर से युक्‍त होकर जन्‍म ग्रहण करता है । वह मनुष्‍य आदि, मध्‍य और अन्‍त में भी शारीरिक और मानसिक दु:खों से पीडि़त रहता है। शरीर के ग्रहणमात्र से दु:ख की प्राप्ति निश्चित समझनी चाहिये । शरीर में अभिमान करने से उस दु:ख की वृद्धि होती है । अभिमान के त्‍याग से उन दु:खों का अन्‍त होता है । जो दु:खों के अन्‍त होने की इस कला को जानता है, वह मुक्‍त हो जाता है। इन्द्रियों की उत्‍पत्ति और लय –ये दोनों कार्य रजोगुण में ही होते हैं । विद्वान् पुरूष शास्‍त्रदृष्टि से इन बातों की भलीभाँति परीक्षा करके यथोचित आचरण करे। जिससे तृष्‍णा का अभाव है उस पुरूष को ये ज्ञानेन्द्रियाँ विषयों की प्राप्ति नहीं करातीं । इन्द्रियों के विषया‍सक्ति से रहित हो जानेपर देही पुन: शरीर को धारण नहीं करता। [Shlok 15 – 21] [ Hindi Translation from Gitapress Gorakhpur]

That unmanifest atma is in the form of seed for living beings having a body. This seed–like
atma when associated with gunas is called jeeva. It is this jeeva who prompted by karmas in
accordance with kaal keeps revolving in this wheel of samsara. (Shl 14) Just as jeeva in dream state
acts as if having another body, in the same way jeeva associated with gunas linked to karmas attains
a dream like state in the mother’s womb. (Shl 15) Whichever indriya is excited due to the seed-like
karmas, that indriya will take shape from mind with quality of attachment and from ahankara.
(The jeeva in the form of foetus remembers its past karmas. At that time also it will have
attachments/interests. It will also have the ahankara of ‘I’. As it recollects its karmas of the past birth,
the indriya corresponding to that karma takes shape). (Shl 16) That jeeva gets interested in listening to
sounds and then the ears develop. As it desires to see shapes and forms according to its prarabdhakarmas, eyes start developing. When it wants to smell, the nose starts developing. (Shl 17) When it desires to enjoy the touch, skin starts developing and vayu also appears. Vayu takes the forms of
prana, apana. That same vayu also becomes udana, vyana & samana. In this manner vayu appears in
five forms and carries on the journey of the body. (Shl 18) At the time of birth human being will have
fully developed organs/limbs formed due to the influence of karmas and will also be associated with
subtle body. Human being so born will be agonised by physical & mental griefs in the beginning,
middle and end of life. (Shl 19) It should be understood that grief will come by the mere act of
taking on a body. That grief further increases due to the affection towards that body. All griefs
are eliminated by giving up attachment to the body. The person who knows this method of getting rid
of grief will be liberated from this samsara. (Shl 20) Birth and dissolution of indriyas happen only
due to rajo-guna. A scholar, after carefully examining this from the view point of shaastras, should
behave suitably. (Shl 21) To one who has no desires the jnanendriyas will not provide/make
available indriyarthas (objects of sense gratification). Once indriyas get disinterested in pleasure
seeking, there is no possibility of the dehi (jeeva) again taking on a body. [English Translation from Maharashi Arvind’s book]

It is important to understand and contemplate on this process. Fetus development is also due to desire of jiva. So this Jiva’s help can be done by pregnant mother by nurturing developing senses by Satvik subjects for those senses. For example, when eye formation is going on, mother should read and see only सुख कारक दृश्य !

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