चातुर्मास में कायिक-वाचिक-मानसिक तप क्यूँ?

Marut

Dharma

वर्षाऋतु वात प्रकोप काल है रह सर्वविदित है । वात विकार अधिकांश मानसिक रोगों के मूल होता है । इस काल में प्राण स्रोत सूर्यनारायण का लोप होता है। इंद्रिया शिथिल हो जाती है। इंद्रियों के अपने आहार \ विषय में आसक्ति निर्माण हो ऐसी परिस्थितियाँ होती है । इन कारणों से मानसिक विकार उत्पन्न होते है या जो सुषुप्त विकार होते है वह सक्रिय हो जाते है ।

12 प्रकार के मानसिक मल जो आपके मन में जरूर उठेंगे। जैसे ही वे आपके मन-स्थान (मानसिक शरीर) में विकसित हो जाएं, उन्हें शुद्ध कर दें।

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शोकः क्रोधश्च लोभश्च कामो मोहः परासुता।
ईर्ष्या मानो विचिकित्सा कृपासूया जुगुप्सता॥
द्वादश्ौते बुद्धिनाशहेतवो मानसा मलाः।

– इति कालिकापुराणे १८ अध्यायः

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शोक,क्रोध्,लोभ,काम,मोह,परपीडन,द्वेश्,अहंकार,संशय,घृणा,दोषरोपन,परनिन्दा

मानसिक अपच से छुटकारा पाने में ही समाधान है। इंद्रिय और उनके द्वारा पकड़ी गई संवेदी धारणा की निरंतर बारीक ट्यूनिंग, शुरुआती चरण में विचारों की अपच का पता लगाना और बेहतर विकल्पों के लिए दिमाग को मोड़ना।

कैसे करेंगे?

सतताध्ययनं वाद- परतन्त्रावलोकनं तद्विद्याचार्यसेवा इति बुद्धि मेधाकरो गण| – सुश्रुत चिकित्सा

स्वाध्याय – श्रवण – सत्संग = जो की चातुर्मास का मुख्य कर्म है।

Continuous स्व-अध्यन (स्वाध्याय ), hearing moral tales (Ramayana, Mahabharata, Bhagwad Gita, Bhagwat) and company of good teachers (सत्संग) helps in fine tuning intellect to avoid indigestion of mind.

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