बालमन वातावरण जनित पूर्वानुभव, पूर्वजन्म संस्कार से उत्पन्न मान्यताओ के आधार पर कर्म करता है। बालमन में शास्त्र अभ्यास से ऋत उदय करना और गुरु सहजीवन से सत्व निर्माण करना ही शिक्षण है!
हमारी कोई भी क्रिया या प्रतिक्रिया चार बिन्दु पर निर्भर होती है।
(१) हमने अभ्यास और अनुभव से क्या सीखा है? लौकिक व्यवहार से हुए अनुभव, वातावरण जनित अनुभव(घर का वातावरण, सामाजिक और आर्थिक वातावरण), शिक्षण, स्वाध्याय
(२) हमारे संस्कार क्या है? संस्कार या कुसंस्कार
(३) हमारी मानसिक प्रकृति कैसी है? सत्व, रजस,तमस
कौरव और पांडव दोनों का शिक्षण समान था पर मानसिक प्रकृति के भेद से, बुद्धि में स्थिर हुई शास्त्रीय मान्यता (ऋत) भिन्न था तो दोनों के सत्य भी भिन्न थे और भिन्न भिन्न स्तर के प्रतिक्रिया और कर्म हुए।
राम और भरत ने समान अभ्यास किया, दोनों की शास्त्रीय मान्यता (ऋत) भी समान थी पर कर्तव्य कर्म की तत्परता और उत्कटता भिन्न थी। “मातृ देवो भव” और “पितृ देवो भव” रूप में समान ऋत दोनों की बुद्धि में स्थिर थी पर दोनों के आचरित सत्य में भिन्नता थी।
विस्तार से समझते है।
हमारे सब कर्म हमारी बुद्धि की अवस्था पर निर्भर है। यह बुद्धि का निर्माण शास्त्र के संपर्क से हो सकता है या मात्र लौकिक अनुभव से (चित्र देखिए)। यदि गुरु अनुकंपा से शास्त्र रूपी ज्ञान गंगा में स्नान किया हो तो हमारी बुद्धि में जो मान्यता ए निर्माण होती है उसे ऋत कहते है। यही ऋत, (सत्व,रजस,तमस) रूपी प्रकृति अनुसार सत्य का निर्माण करता है। सत्य अर्थात जो ऋत आचरण में है वह। शास्त्र अभ्यास के अभाव में ऋत का लोप होता है । ऋत के लोप के कर्म किए कर्म एक द्यूत समान है । सत्य नहीं है । अर्ध सत्य हो सकते है । मिथ्या हो सकते है ।
शास्त्र अभ्यास के बाद भी ऋत का पूर्ण सत्य में रूपांतरण सभी के लिए संभव नहीं है । उसके लिए तमस से रजस, रजस से सत्व और सत्व से गुणातीत की यात्रा करनी होगी। इसके लिए शिक्षण व्यवस्था में पंचकोश शुद्धि हेतु साधना आवश्यक है। श्रम, सेवा, योग, क्रीडा, संगीत, संस्कृत, आयुर्वेदीय दिनचर्या, ऋतुचर्या, सम्यक विहार, प्रकृति संरक्षण आदि ब्रह्मचर्य अवस्था में छात्र के जीवन होंगे तो सम्यक ऋत(शास्त्र आधारित मान्यताए) निर्माण होते रहेगे और प्रभावी सत्व आच्छादित मन से सत्याचारण होगा।