स्कूली व्यवस्था में, निहित स्वार्थों के लिए संस्कृत सीखने को उबाऊ, अनुपयोगी बनाने के जानबूझकर प्रयास किए जाते हैं।
निजी स्कूलों के शिक्षक बच्चों को फ्रेंच, जर्मन सीखने प्रेरित करते है और संस्कृत को मृतप्राय भाषा बताते है।
सरकारी स्कूलों में तो मातृभाषा पर भी ध्यान दिया नहीं जाता।
संस्कृत नहीं तो देवत्व निर्माण नहीं, और दैविक स्पर्श के बिना मनुष्य=आसुरी वृत्तियों का सहज शिकार!
एक जागरूक अभिभावक के रूप में ऐसी व्यवस्था पर काम करें की आपके बच्चे साधना के रूप में इंद्रियों को संस्कृत स्पंदनों का नित्य स्नान करवाए। और यह देवभाषा साधना का उत्तम वातावरण प्रकृति में ही संभव है!