हमारे शरीर(पिंड) और उसका वातावरण(ब्रह्मांड), प्राण से युक्त है। प्राण सभर होने से, जीवंत है। जीवंत होने से, शरीर के विभिन्न अंगों के निश्चित कोश के साथ साथ कुछ जीवंतता अंगों जैसी संगठित न हो कर असंगठित रह जाती है। उन्हे ही हम microbes या सूक्ष्म जीवाणु या वायरस या बेकटेरिया के नाम से जानते है। यह जीवाणुओ का , कोष्ठअग्नि को सम या विषम, आकार देने में भाग होता है।
उत्सव प्रधान भारत भूमि में, भिन्न भिन्न क्षेत्रों में, वर्ष के भिन्न भिन्न समय, बासी खाने के दिन होते है। गुजरात प्रदेश में श्रावण मास के सप्तमी पर यह मनाया जाता है।
वैसे तो बासी अन्न का त्याग करना चाहिए पर, १ दिन के लिए, वर्षा से शरद की और यात्रा में, शनै शनै पित्त वृद्धि होती है। यानि अग्नि वृद्धि। सूक्ष्म जीवों का आश्रय ले कर, जो की अपने आप में बासी अन्न के प्राण आश्रित है, पित्त की योग्य वृद्धि में मदद होती है। और यह अन्न तेल से संस्कारित होता है, वह भी अपने आप में अग्नि वृद्धि में मददकर्ता है। १ दिन के लिए, कही कही खीर भी खाई जाती है, वह भी शरद का ही आहार है।
आधुनिक विज्ञान के भाषा में, बासी अन्न पर, घर के वातावरण से लगे सूक्ष्म जीवाणु, रोगप्रतिकारक टीके का काम भी करते है।
सावधान रहे की यह बासी खाने में आधुनिकता न लाए। अपनी परंपरा का शब्दसह पालन कीजिए।
श्रावण और भाद्रपद के उत्सव अपने आप में सुनियोजित अग्नि कर्म है । घर के वातावरण से लगे सूक्ष्म जीवाणु, तेल में तला अन्न, दूध के पकवान, अग्नि वृद्धि के लिए उद्दीपक का कार्य करते है।
एक पुरानी पोस्ट यह विषय पर :