हमारा और हमारे ब्रह्मांड का अस्तित्व अग्नि-सोमात्मक है ऐसी वेद घोषणा है । अग्नि अन्नाद है तो सोम अन्न । अग्निमयता की चरमसीमा सोम है और सोममयता की चरमसीमा अग्नि है ।
जैसे ब्रह्मांड अग्नि-सोमात्मक है वैसे ही पिंड (हमारा शरीर) भी ।
अग्नि गति है तो सोम अगति है ।
अग्नि देव है तो सोम पितर ।
अग्नि विकास है तो सोम संकोचन।
वसंत से प्रारंभ हुआ अग्नि का विकास वर्षा के अंत तक चरम सीमा पर है। परिवर्तनी एकादशी से सोम का विकास प्रारंभ होता है और अग्नि का क्षय, जो की शरद, हेमंत और शिशिर तक चलता रहेगा।
3 ऋतु में अग्नि विकास, सोम क्षय
3 ऋतु में सोम विकास, अग्नि क्षय
ब्रह्मांड का प्रतिबिंब है पिंड। शरद के श्राद्ध पक्ष\पितर से होगा सोम विकास। आमलकी
एकादशी (वसंत से ग्रीष्म संधि) से प्रारंभ होता है सोम क्षय और अग्नि विकास। पितरों का संबंध भी चंद्र\सोम से ही तो है ।
ब्रह्मांड में जो भाव प्रभावी उससे विपरीत भाव पिंड में प्रभावी।
(ग्रीष्म से वर्षा – ब्रह्मांड में अग्नि प्रभावी – शरीर में अग्नि मंद)
अग्नि-सोमात्मक अस्तित्व के सापेक्ष हर एक एकादशी, हर एक व्रत ।
अग्नि विकास के समय मानसिक तप।
सोम विकास के समय शारीरिक तप ।
प्रत्येक व्रत का आहार-विहार संवत्सर के उस काल-खंड के अनुसार सोम-अग्नि के संतुलन को बनाए रखता है ।
पितरों पर चिंतन क्रमश: चलता रहेगा।
चित्र में एकादशी के माध्यम से ऋतु संधि काल से अग्नि-सोम परिवर्तन दिखलाया है ।