श्राद्ध विज्ञान भाग : गोत्र विचार : (, , ), ,
क्यूँ पितृओ का पूजन? उसे गंभीरता से समझने हेतु हम शनै शनै आधुनिक विज्ञान के सहारे आगे बढ़ेंगे।
****कुल-गोत्र are not mere labels and titles. They are very much bio-markers(पंचकोशिय दैहिक निशानियाँ – देह, प्राण, मन, चित्त पर वातावरण, पितृगण से, शरीर माध्यम का धर्म के लिए सुचारु उपयोग करने हेतु दी गई \ सतत दी जानेवाली संकेतीय माहिती है).****
गोत्र शब्द में स्थिर त्र प्रत्यय का सामान्य भाव ‘रक्षण’ है ।
गो का अर्थ पिंड के परिपेक्ष में हमारी इंद्रियाँ है । गोत्र जो इंद्रियों का रक्षण करें।
गोत्र का संबंध सप्त ऋषि से है । प्रत्येक ऋषि इंद्रियों की प्रधानता का दर्शन है। तो जीतने भी पितृ प्रधान मानसिक \ प्राणिक \ शारीरिक संकेत है, वह वातावरण के प्रभाव में गोत्र रूपी रक्षण प्रदान करता है ।
– Left Ear – भारद्वाज ऋषि
– Right Ear – गौतम ऋषि
– Left Eye – जमदग्नि ऋषि
– Right Eye – विश्वामित्र ऋषि
– Left nostril – कश्यप ऋषि
– Right nostril – वशिष्ठ ऋषि
– मुख – अत्रि ऋषि
मेरी दृष्टि में, गोत्र ऐसे प्राणिक या\और मानसिक निशानियाँ का समूह है जो हमे पूर्वजों से मिली है और इनका कार्य पितर प्राण की प्रेरणा से होता है । गोत्र के अलावा भी bio-markers होते है जो हमें अपने वातावरण, अन्न, और अन्य जीवों(microbes, viruses, fungi, animals and their microbes etc) के साथ होते आदान प्रदान से मिलते है।
आधुनिक विज्ञान जिस तरह epigenetics (कैसे वातावरण की रंगसूत्रों पर होती असर से शरीर की सभी प्रणाली पर नियंत्रण होता है उसका अभ्यास करने का शास्त्र) को अपना रही है , समय दूर नहीं की प्राणमय कोश का महत्व विश्व पुनः समझने लगेगा।
कुल-गोत्र मात्र विशेष जातीय गौरव खड़ा करने बनाई रीति नहीं है । जैसे आज हम जैविक रंगसूत्रों को जीवन का आधार समझते है वैसे ही , भारतीय जीव शास्त्र अंतर्गत, पंचकोश से बना शरीर, प्राण, मन, स्मृति, संस्कार का भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी वहन करता है। क्यूंकी प्राण, मन पिंड के साथ साथ ब्रह्मांड में भी स्थित है, जीव के साथ जुड़े प्राण और मन सतत ब्रह्मांड स्थित प्राण और मन से संस्कारित होते रहते है । इसी कारण, विवाह पश्चात वधू का गोत्र बदल जाता है (वातावरण बदलने से प्राण और मन पर होती असर – पंचकोशिय epigenetic)।
**क्यूँ सगोत्र विवाह नहीं होते?**
– मानसिक कारण : विवाह का मुख्य ध्येय एक दूसरे के पूरक बनकर धर्म कार्य करना और आध्यात्मिक प्रगति करना है। सगोत्र होने से एक ही ऋषि-इंद्रिय के प्रभावशाली होने से, पति पत्नी एक दूसरे के पूरक नहीं बन सकते
– शारीरिक कारण – सगोत्र होने से उनके होनेवाली संतान में गुण के साथ विकार प्रबल रूप ले सकते है और विकार \ रोग नि संभावना भी बढ़ जाती है ।
यदि आप नास्तिक भी हो फिर भी सूक्ष्मता से जीवन को अनुभव करना प्रारंभ करने पर सृष्टि और पिंड के रचयिता के लिए निश्चित अहोभाव उत्पन्न होगा ।