
श्रुताद्धि प्रज्ञोपजायते प्रज्ञया योगो योगादात्मवत्तेति विद्यासामर्थ्यम्।।
शास्त्र-श्रवण से प्रज्ञा(नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा)उत्पन्न होती है, प्रज्ञा से योग तथा योग से आत्मबल प्राप्त होता है।यही विद्या का सुपरिणाम है।
~ कौटिलीय अर्थशास्त्रम्-
भारतीय संस्कृति में शिक्षा केवल कौशल प्राप्त करने का माध्यम नहीं है। कौशल तो आजकल कोई भी यूट्यूब से भी सीख सकता है। आजकल बहुत से बच्चे ऑनलाइन ही बहुत कुछ सीखते हैं। इसलिए शिक्षा का उद्देश्य केवल कौशल प्राप्त करना नहीं है। शिक्षा का श्रेष्ठ उद्देश्य है – इस शरीर को पंच-कोश रूप में आत्म साक्षात्कार के लिए तैयार करना।
मौखिक शिक्षा कैसे सहायक है? शास्त्रों को कंठस्थ क्यों किया जाता है?
शास्त्र ऋषियों की अंतरदृष्टि से प्राप्त अनुभूतियाँ हैं।
जब इनका अध्ययन और स्मरण किया जाता है, तो मस्तिष्क के वही तंत्रिका केंद्र सक्रिय होते हैं, जो ऋषियों में ब्रह्मांड से ज्ञान प्राप्त करते समय सक्रिय थे।
इससे संबंधित भौतिक कौशल में भी पारंगत होने में सहायता मिलती है।
एक उदाहरण से समझें:
हर कोई इस जन्म में ऋषि नहीं हो सकता। हर कोई भगवान पाणिनि की तरह सूर्य से संस्कृत व्याकरण के सूत्रों का ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता। लेकिन यदि कोई उनके दिए हुए सूत्रों को कंठस्थ कर ले, तो निश्चित ही मस्तिष्क की वही न्यूरल सर्किट्स सक्रिय हो सकती हैं, जो इस ज्ञान को ग्रहण करने में सहायक होती हैं।
एक और उदाहरण लें:
इंजीनियरिंग छात्रों को हर सेमेस्टर में गणित क्यों पढ़ाई जाती है?
क्योंकि गणित मस्तिष्क को सक्रिय और व्यायामित करने का एक उपकरण है, जिससे वह इंजीनियरिंग में गणितीय प्रयोगों को समझ सके, और जटिल समस्याओं का समाधान निकाल सके।
यदि गणित न आए, तो आप मशीन लर्निंग, सर्च एल्गोरिद्म आदि पर कैसे कार्य करेंगे?
उसी प्रकार, शास्त्रों का कंठस्थ अभ्यास मस्तिष्क को सक्रिय और प्रशिक्षित करने का एक अत्यंत प्रभावशाली साधन है, जिससे वह आत्म साक्षात्कार के लिए तैयार हो सके।