
“शिष्य मूर्खता करे तो बदनामी गुरु की होती है…
प्रश्नचिह्न गुरु की शिक्षा-दीक्षा पर लगता है।
प्रश्नचिह्न इसलिए लगता है क्योंकि शिष्य गुरु की जिम्मेदारी होता है।
और जिम्मेदारी स्थानीय (localized) होती है!
आप जिम्मेदारी को बाँट (distribute) नहीं सकते…
आज एक बच्चा एक ही विद्या को चार-पाँच शिक्षकों से पढ़ता है…
जिम्मेदारी कोई शिक्षक नहीं लेता… क्योंकि वह तो बँट गई है…
रूढ़िवादी संस्कृति के दकियानूसी राज।
असल में, आधुनिक प्रणाली में शिक्षक एक वेतनभोगी कर्मचारी है।
वह इतना समर्थ नहीं होता कि बच्चों की समग्र रूप से मदद कर सके।
शिक्षा लेन-देन के संबंध में नहीं होती।
पिछली तीन सदियों की औद्योगिकीकरण की लहर ने ऐसे श्रमिकों की माँग की —
जो आदेश मानें और निर्देशों का पालन करें।
तो शिक्षा प्रणाली को इसी आवश्यकता के अनुसार डिज़ाइन किया गया।
19वीं सदी का भारत अब भी अपनी गुरु-शिष्य परंपरा का पालन कर रहा था।
इसलिए उस व्यवस्था से जो अंतिम उत्पाद (व्यक्ति) निकलता था,
वह आत्मनिर्भर होता था —
जो बिना किसी की मदद या दया के स्वयं और अपने परिवार का पालन-पोषण कर सकता था।
इसलिए ‘मानव संसाधन’ (यानि मशीनों को चलाने के लिए मानव रूपी मशीनें)
बनाना भारत से मुश्किल था।
तब आए मिस्टर मैकॉले,
अपनी भव्य योजना के साथ — भारतीय शिक्षा प्रणाली में सुधार लाने के लिए।
और फिर जो हुआ, वह इतिहास है।
एक समय था जब इस देश में नौकरी करना हेय माना जाता था।
आज माता-पिता अपने सबसे कीमती धन (बच्चे) को
स्कूल में इसलिए दाखिल करते हैं
कि बच्चा कुछ अधकचरी कौशल (skills) सीख सके
ताकि वह एक ‘अच्छी नौकरी’ पा सके!
नौकरी! सब नौकरी का चक्कर है!
बाकी सीखना स्कूल में नहीं होगा!”