आत्मलाभात् परम् लाभं न विद्यते । आत्म लाभ से बढ़ कर कोई लाभ नहीं है ।
आत्मज्ञानात् परम् ज्ञानं न विद्यते । आत्म ज्ञान से बढ़ कर कोई ज्ञान नहीं है ।
योग दर्शन हो या वेदान्त दर्शन , सब का एक ही प्रयोजन – दृश्य और दृष्टा का भेद समझो। स्वयं के स्वरूप का ज्ञान हो !
प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम्।।2.18।।
पिछले सूत्र में हमने दृष्टा और दृश्य के संयोग को दुःख का कारण माना । इस सूत्र से हम दृश्य को समझने का प्रयत्न करेंगे ।
दृश्य क्या है?
प्रकृति त्रिगुणात्मक है । प्रत्येक गुण का स्वभाव है ।
प्रकाशशीलं सत्त्वम्। सत्व = प्रकाश
क्रिया शीलं रजः। रज = क्रिया
स्थितिशीलं तम इति। तम = स्थिरता
कोई भी परमाणु का analysis कर लो , यह तीन गुण सभी में विद्यमान है ।
यह गुणों के आधीन जो कुछ भी है वह दृश्य है । दृश्य के विविध स्तर निर्माण होते है । स्थूल पृथ्वी आदि महाभूत से ले कर सूक्ष्म प्राण, ,मन (बुद्धि, अंतःकरण) ।
दृश्य का प्रयोजन क्या है ? क्यूँ त्रिगुणात्मक प्रकृति का अस्तित्व है ?
दृष्टा के भोग और मोक्ष के लिए दृश्य है । दृष्टा के लिए बुद्धि में जो सुख और दुःख का अनुभव होता है वही भोग है और दृष्टा को अपने स्वरूप का जो ज्ञान होता है वह मोक्ष है । दोनों मार्ग के लिए दृश्य आवश्यक है । भोग और मोक्ष से भिन्न और कोई तीसरा ज्ञान नहीं है ।
भोक्ता या दृष्टा, बुद्धि जो की दृश्य का ही भाग है, उसकी मदद से ज्ञान प्राप्ति करता है और भोग भोगता है । जैसे योद्धा रण संग्राम में लड़ता है किन्तु जय पराजय का यश राजा को मिलता है वैसे ही बुद्धि दृश्य को दृष्टा \ भोक्ता पर आरोपित करती है । वास्तव में दृष्टा कुछ नहीं करता ।