#prachodayatyogasutra विवेक ही है त्रिकाल ज्ञान
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गतांक से आगे
परिणाम तापसंस्कार दुःखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः।।2.15।।
परिणाम दु:ख, ताप दु:ख और संस्कार दु:ख, इन तीन प्रकार के दु:खों के कारण और तीनों गुणों की वृत्तियों में परस्पर विरोधी स्वभाव के कारण विवेकी के लिए सब-के-सब कर्मफल दु:खरूप ही हैं ।
पिछले जन्म से या रहें कर्म फल रूपी सुख हो या दुःख, या वर्तमान जन्म के सुख दुःख, विवेकी पुरुष के लिए सब कुछ दुःख ही है!
यह सूत्र समझने हेतु हम आयुर्वेद का एक सिद्धांत समझते है| खाये हुये आहार का सम्पूर्ण पाचन होना ही विपाक कहलाता है।
**’जाठरेणाग्निना योगाद्यदुदेति रसान्तरम्।**
**रसानां परिणामान्ते स विपाक इति स्मृतः ॥’ ( अ.ह.सू. 1)**
आहार एवं औषध द्रव्यों के खाने के पश्चात् महास्रोत में पाचन क्रिया से जठराग्नि, भौतिकाग्नियों द्वारा परिपाक के रूपान्तरित होने पर अन्त में जो रस या गुण विशेष की उत्पत्ति होती है, उसको विपाक या निष्ठापाक कहते हैं।
कुछ भी अन्न ग्रहण करो उनका रूपांतरण विपाक में हो होगा | और विपाक के भी तीन ही प्रकार
(१) मधुर विपाक (२) अम्लविपाक (३) कटुविपाक
जिनको यह सिद्धांत समझ में आता है वैसे अन्नपान-विवेकी पुरुष जिह्वा लंपट बनकर स्वाद वैविध्य के पीछे नहीं भागेगा बल्कि इससे विपरीत मिताहार पसंद करेगा जिससे योग्य रूप में स्वास्थ्य वर्धक विपाक उत्पन्न हो !
ठीक ऐसे ही, विवेक पुरुष को सुख और दुःख का अंतिम भेद ज्ञात होने पर, वासना वृत्ति के बड़े बड़े बवंडर भी च्युत नहीं करते, उनके लिए तो सब का विपाक एक ही प्रकार का दुःख ही है ! (विपाक जैसे तीन प्रकार भी नहीं ! है न सरल ? )
चलो हम भी प्रयत्न करते है यह विवेक हमारी बुद्धि में विकसित करने हेतु :
विवेकशील जनों की दृष्टि में सारे विषय सुख परिणाम, संसार से उत्पन्न हुए ताप या संस्कारगत दुखों एवं सत्व आदि गुणों के परस्पर विरोध के कारण दुःख रूप ही है |
दुःख के तीन प्रकार समझने है :
(१) परिणाम दुःख – आसक्ति से किया कोई भी सकाम कर्म का परिणाम दुःख ही है | कैसे?
– आपके जीवन में सुख प्रदान करने वाली घटनाए हो रही है, इसके लिए निमित्त चेतन और अचेतन में एक प्रीति सी उत्पन्न होती है | राग निर्माण होता है | राग रजोगुण से संबंधित है | राग से होनेवाली प्रवृत्तियों से राग रूपी कर्माशय बनेगा | कर्माशय फल भी देंगे | भोग का चक्कर चलता रहेगा | सुख के अनुभव में दुःखकारक परिस्थिति\चेतन\अचेतन पदार्थों में द्वेष निर्माण होगा (समझ लो , सुख की नींद ले रहे हो और कोई आके पंखा बांध कर दे ! होगा न द्वेष निर्माण ! ) इससे बनेगा द्वेष रूप कर्माशय !
– दुःख की परिस्थिति है तो सुख के लिए मोह उत्पन्न होगा ! मोह कर्माशय ! सुख के लिए अंध बनने पर होगी हिंसा ! हिंसा रूप में कर्माशय !
– और एक बात – विषय भोग से इंद्रियों के तृप्ति कभी नहीं होती ! भोग क्षुधा और बढ़ जाती है !
(२) ताप दुःख – सुख के मोह में हम दूसरों को तप्त करते है या अन्य जन सुख की इच्छा में हमें ताप (दुःख) देते है ! (कॉर्पोरेट विश्व में प्रतिशोध\बदला\पॉलिटिक्स सुन ही होगा ! उसका ताप सहन भी किया होगा | दूसरों के ताप को सहन करने का दुःख और दूसरों को प्रताड़ित करने के फ़ल में भी दुःख !
श्रीमद भगवद गीत तो विषय चिंतन को ही सर्वनाश का मूल दर्शाती है !
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62।।
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।
विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।
(३) संस्कार दुःख : आज के सुख और दुःख से संगलग्न वृत्तियाँ या वासना चित्त पर अंकित होती रहेगी और आनेवाले जन्मों में संस्कारगत दुःख का कारण बनेगी !
संस्कार से स्मृति , स्मृति से राग और राग से आसक्त कर्म ! राग युक्त कर्मों से इंद्रिय भोग | इंद्रिय भोग से क्षीण इंद्रियाँ !यहीं है संस्कार दुःखता !
**तो क्या पूरा जीवन नीरस है? उदासीन ? बोरिंग?**
नहीं ! ऐसा कहाँ कहा ? बात इतनी है की विषयों में रमण नहीं होना है ! आसक्त नहीं होना है ! कर्माशय को हर एक मनुष्य जन्म में क्षीण करते जाना है !
पैर के तलवे जैसे कठोर नहीं नेत्र गोलक के ऊपर आई पलकों के जैसे संवेदनशील बनना है ! एक छोटे से तिनके की सूक्ष्म आहट से भी जैसे हम आँख बंध कर उसे बचा लेते है वैसे ही सुख का सूक्ष्म अनुभव होने पर ही अनासक्त का मानसिक बटन on कर देना है और मोह \ क्रोध \ काम की परिस्थिति की संभावना देखते ही पलकों की तरह दक्ष रहते परिस्थिति को टालना है |
जैसे चित्र में बताया है, सुख और दुःख, संस्कार गत हो या परिणाम गत, इस जन्म के या पूर्वजन्म के – विवेक दृष्टि से उसे दुःख ही माने ! अन्नपान में विपाक विवेक की जैसे
**अंत में, श्री कृष्ण श्रीमद भगवद गीता में कहते ही है न :**
**ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते।**
**आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः।।5.22।।**
**क्योंकि हे कुन्तीनन्दन ! जो इन्द्रियों और विषयोंके संयोगसे पैदा होनेवाले भोग (सुख) हैं, वे आदि-अन्तवाले और दुःखके ही कारण हैं। अतः विवेकशील मनुष्य उनमें रमण नहीं करता।**