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महामायाप्रभावेण संसारस्थितिकारिणा ।
तन्नात्र विस्मयः कार्यो योगनिद्रा जगत्पतेः ॥ – Durga Saptshati 1.54
‘योगश्चितवृत्तिनिरोधः: ।’ पा० यो0 सूत्र १/2
अर्थात् चित्त की यृत्तियो का सर्वथा अभाव ही योग है। चित्त का तात्पर्य यहाँ अन्तःकरण से है। ज्ञानेन्द्रियो द्वारा जब विषयों को ग्रहण किया जाता है। ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अर्जित ज्ञान को मन आत्मा तक पहुँचाता हैं। आत्मा उसे साक्षी भाव से देखता है, वुद्धि व अहंकार विषय का निश्चय करके उसमें कर्तव्य भाव लाते है। इस सम्पूर्ण किया में चित्त में जो प्रतिबिम्व बनता है, वही वृत्ति कहलाती है। चित्त हमारा दर्पण की भॉति होता है। अतः विषय उसमें आकर प्रतिविबिम्व होता है। अर्थात् चित्त विषयाकार हो जाता है। इस चित्त को विषयाकार होने से रोकना ही योग है।
यहाँ योगनिद्रा का जो प्रचलित रूप है वह नहीं है ।दुर्गासप्तशती के टीकाकार के अनुसार, योगनिद्रा अर्थात तमोगुण से रहित निद्रा। श्रीमद भगवद गीता में स्थितप्रज्ञ की स्थिति अर्थात योगनिद्रा की स्थिति।
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।।2.69।।
।।2.69।। सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मासे विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है, और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रहमें लगे रहते हैं), वह तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें रात है।
जिन सांसारिक विषयों के प्रति अज्ञानी लोग सजग होकर व्यवहार करते हैं और दुख भोगते हैं स्थितप्रज्ञ पुरुष उसे रात्रि अर्थात् अज्ञान की अवस्था ही समझते हैं और योगनिद्रा में स्थित रहते है (तमस रहित अवस्था)।