संस्कृत गोवीथि : : गव्य २७ (साहित्य विशेष)

Nisarg Joshi

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Gavya27

तीक्ष्णा नारुन्तुदा बुद्धिः कर्म शान्तं प्रतापयत्‌ ।

सत्पुरुषोकी बुद्धि तीक्ष्ण होती है किन्तु शस्त्रोंकी भांति मर्मभेदिनी नहीं होती| उसका कार्य तेजोयुक्त होने से शत्रुको भयप्रद करता है पर शांत गुणके साथ|

शिशुपालवध & न्यायदर्शन

न्यायका व्यापक अर्थ विविध प्रमाणोंसे वस्तुतत्त्वकी परीक्षा करना है| महाकवि माघ अपने काव्य में न्यायका यत्र तत्र वर्ना करते दिखे है|

For example:

चयस्त्विषामित्यवधारितं पुरा ततः शरीरीति विभाविताकृतिम्।
विभुर्विभक्तावयवं पुमानिति क्रमादमुं नारद इत्यबोधि॥

अर्थात दूर से नारदजी आ रहे थे। पहले तो समझा कि कोई तेजः पुंज आ रहा है; फिर आकृति का भान होने पर मालूम हुआ कि कोई शरीरी है। उसके पश्चात अवयव-विभाग की प्रतीति होने पर जाना कि कोई पुरुष है और फिर क्रमशः निश्चय हुआ कि नारदजी हैं।

कवि माघने प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रक्रियामे निर्विकल्पकज्ञान एवं सविकल्पकज्ञानका संकेत किया है|

करपात्रीजी महाराजने अच्छा समजया है|

“नारद जी महाराज आ रहे थे आकश मार्ग से। यदुवंशियों की सुधर्मा सभा में भगवान कृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द विराजमान थे। बलराम जी विराजमान थे। उन्होंने देखा कि कोई तेजः पुंज अवतरित हो रहा था। कुछ समीप आने पर उन्होंने कोई शरीर समझा। जब अवयवों का पृथक-पृथक कुछ उन्मेष हुआ तो कहा-कोई पुमान-पुरुष आ रहा है और समीप आने पर उन्होंने कहा- ‘ये तो देवर्षि नारद जी आ रहे हैं’।
इस तरह दूर से तेजः पुंज का दर्शन हुआ, नजदीक से शरीरी पुमान का बोध हुआ। अत्यन्त समीप से साक्षात नारद का बोध हुआ। इसी तरह जो तत्त्व से सुदूर हैं वे ब्रह्म ही समझते हैं, केवल प्रकाश रूप समझते हैं भक्त लोग कहते हैं, ब्रह्म क्या है राधा रानी के नूपुर का जो प्रकाश है, वही ब्रह्म है। मौजी हैं। रसिकों का मौज है, रसास्वादन है। हाँ तो जो अत्यन्त दूरस्थ हैं, उन्हें चिन्मय-बोधमय-अखण्ड बोधस्वरूप भगवान भासित होते हैं। जो कुछ नजदीक आते हैं उनके लिए वही केवल बोधरूप नहीं हैं किन्तु सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता, अनन्तकोटिब्रह्माण्डनायकतादि अनेक गुणों से विशिष्ट हैं। जो और नजदीक आते हैं वे कहते हैं- ओ हो हो! अचिन्त्य-अनन्त अखण्ड-कल्याणगुणगणोपेत अनन्तकन्दर्पदमनपटीयान भगवान् हैं। हम लोग इसका रस लेते हैं। आनन्द लेते हैं। लेकिन संकेत मात्र कर देते हैं। लक्षण ऐक्य होने से वस्तु का ऐक्य होता है, नाम के अनेकत्व होने से वस्तु का अनेकत्व नहीं होता। लक्षण एक है तो लक्ष्य एक है। यहाँ लक्षण तो एक है- ‘अद्वयं यज्ज्ञानं तदेव तत्त्वम्’ केवल नाम ही तीन हैं। नाम भेद से वस्तु भेद माने तो नाम तो तीन हैं, एतावता वस्तु भी तीन सिद्ध होगी। फिर तो लक्षण भी तीन ही कहना चाहिए। यदि अलग-अलग लक्षण नहीं है एक ही लक्षण है- ‘अद्वयं यज्ज्ञानं तदेव तत्त्वम्’ तो खाली ‘ब्रह्मेति-परमात्मेति, भगवानिति’ नाम मात्र से उसका पार्थक्य कैसे हो जायगा? सजातीय-विजातीय-स्वगत भेद रहित, स्वप्रकाश, नित्य-विज्ञान को ही तत्त्व कहा है। वेदों का महान तात्पर्य ब्रह्म ही में है और वही सब तरह से सर्वोंत्कृष्ट है।” – भागवतसुधा – pg १२४

दूर वस्तुका निरवयज्ञान

निकट आने पर सावयवयज्ञान

क्रमिक ज्ञानसे निश्चयात्मक ज्ञान हो गया!


शब्द सिन्धु


पंक (pa.nka) = mud
पंगु (pa.ngu) = cripple
पंच (pa.ncha) = five
पंचत्वंगं (pa.nchatva.ngaM) = to die
पंचमः (pa.nchamaH) = (Masc.Nom.S)the fifth
पंडितः (pa.nDitaH) = (Masc.nom.Sing.)learned person
पंथा (pa.nthaa) = way
पंथाः (pa.nthaaH) = (masc.Nom.Sing.) path; way
पंथानः (pa.nthaanaH) = ways; paths
पक्वं (pakvaM) = ripe
पक्षवाद्यं (pakShavaadyaM) = (n) pakhaavaj
पङ्क (pa.nka) = mud
पङ्क्ति (pa.nkti) = spectrum
पङ्क्तिदर्शी (pa.nktidarshii) = spectroscope
पङ्क्तिमापी (pa.nktimaapii) = spectrometer
पङ्क्तिलेखा (pa.nktilekhaa) = spectrograph
पचति (pachati) = (1 pp) to cook
पचन्ति (pachanti) = prepare food
पचामि (pachaami) = I digest
पच्यन्ते (pachyante) = are cooked?
पञ्च (paJNcha) = five
पञ्चमं (paJNchamaM) = the fifth
पट (paTa) = spectrogram
पटगृहम् (paTagRiham.h) = (n) a tent
पटु (paTu) = (adj) skilled, clever
पठ् (paTh.h) = to read
पठनं (paThanaM) = reading
पठनीया (paThaniiyaa) = should be read
पठामि (paThaami) = read
पठित्वा (paThitvaa) = after reading
पठेत् (paThet.h) = may read
पण (paNa) = Play
पणन (paNana) = bargain
पणनयोग्य (paNanayogya) = marketable
पणनयोग्यता (paNanayogyataa) = marketability
पणवानक (paNavaanaka) = small drums and kettledrums
पण्डित (paNDita) = learned man
पण्डितं (paNDitaM) = learned
पण्डिताः (paNDitaaH) = the learned
पण्दित (paNdita) = the wise man
पत् (pat.h) = to fall
पतग (pataga) = Bird
पतङ्गाः (pata.ngaaH) = moths
पतति (patati) = (1 pp) to fall
पतत्रिन् (patatrin.h) = bird
पतन (patana) = falling
पतन्ति (patanti) = fall down
पतये (pataye) = husband
पति (pati) = husband
पतिगृहं (patigRihaM) = (Nr.Acc.sing.) husband’s house
पतितं (patitaM) = fallen (past part.)
पतिरेक (patireka) = He is the One Lord


पाठ


1 2 3


सुभाषित


अप्रधान: प्रधान: स्यात् पार्थिवं यदि सेवते।
प्रधानोऽप्यप्रधान: स्याद् यदि सेवाविवर्जित:॥

An unimportant person becomes important, as soon as he is employed by a prince (and) an important person becomes unimportant as soon as he is unemployed.


पठन/स्मरण


 

शिशुपालवधम्/सप्तमः सर्गः

 

अनुगिरमृतुभिर्वितायमानामथ स विलोकयितुं वनान्तलक्ष्मीं ।
निरगमदभिराद्धुमदृतानां भवति महत्सु न निष्फलः प्रयासः ।। ७.१ ।।

दधति सुमनसो वनानि बह्वीर्युवतियुता यदवः प्रयातुमीषुः ।
मनसिमहास्त्रमन्यथामी न कुसुमपञ्चकमलं विसोढुं ।। ७.२ ।।

अवसमधिगम्य तं हरन्तयो हृदयमयत्नकृतोज्वलस्वरूपाः ।
अवनिषु पदमङ्गनास्तदानीं न्यदधत विभ्रमसम्पदोऽङगनासु ।। ७.३ ।।

नखरुचिरचिन्द्रचापं ललितगतेषु गतागतं दधाना ।
मुखरितवलयं पृथौ नितम्बे भुजलतिका मुहुरस्खलत्तरुण्याः ।। ७.४ ।।

अतियपरिणाह्ववान्वितेने बहुतरमर्पितकिङ्किणीकः ।
अलघुनि जघनस्थलेऽपरस्या ध्वनिमधिकं कलमेखलाकलापः ।। ७.५ ।।

गुरुनिबिडनितम्बबिम्बभाराक्रमणनिपीडितमङ्गनाजनस्य ।
चरणयुगमसुस्रुवत्पदेषु स्वरसमसक्तमलक्तकच्छलेन ।। ७.६ ।।

तव सपदि समीपमानये तामहमिति तस्य मयाग्रतोऽभ्यधायि ।
अतिरभसाकृतालघुप्रतिज्ञामनृतगिरं गुणगौरि मा कृथा मां ।। ७.७ ।।

न च सुतनु न वेद्मि यन्महीयानसुनिरसस्तव निश्चयः परेण ।
वितथयति न जानातु मद्वचोऽसाविति च तथापि सखीषु मेऽभिमानः ।। ७.८ ।।

सततमनभिभाषणं मया ते परिणमितं भवतीमनानयन्तया ।
त्वयि तदिति विरोधनिश्चितायां भवति भवत्वसुहृज्जनः सकामः ।। ७.९ ।।

गतधृतिरवलम्बितुं बतासूननलमनालपनादहं भवत्याः ।
प्रणयति यदि न प्रसादबुद्धिर्भव मम मानिनि जीविते दयालुः ।। ७.१० ।।

प्रियमिति वनिता नितान्तमागःस्मरणसरोषषकषायिताक्षी ।
चरणगतसखीवचोऽनुरोधात्किल कथमप्यनुकूलयाञ्चकार ।। ७.११ ।।

द्रुतपदमिति मा वयस्य यासिर्ननु सुतनुं परिपालयानुयान्तीं ।
नहि न विदितखेदमेदतीयस्तनजघनोद्वहने तवापि चेतः ।। ७.१२ ।।

इति वदति सखीजनेऽनुरागाद्दयिततमामपरश्चिरं प्रतीक्ष्य ।
तदनुगमवशादनायतानि न्यधित मिमान इवावनिं पदानि ।। ७.१३ ।।

यदि मयि लघिमानमागतायां तव धृतिरस्ति गतास्मि सम्प्रतीयं ।
द्रुततरपदपातमापपात प्रियमिति कोपपदेन कापि संख्या ।। ७.१४ ।।

अविरलपुलकः सह व्रजन्त्याः प्रतिपदमेकतरः स्तनस्तरुण्याः ।
घटितविघटितः प्रियस्य वक्षस्तटभुवि कन्दुकविभ्रमं बभार ।। ७.१५ ।।

अशिथिलमपरावसज्य कण्ठे दृढपरिरब्धबृहद्बहिस्तनेन ।
हृषिततनुरुहा भुजेन भर्तृर्मृदुममृदु व्यतिविद्धमेकबाहुं ।। ७.१६ ।।

मुहुरसुसममाध्नती नितान्तं प्रणदितकाञ्चि नितम्बमण्डलेन ।
विषमितपृथुहारयष्टि तिर्यक्कुचमितरं तदुरस्थले निपीड्य ।। ७.१७ ।।

गुरुतरकलनूपुरानुनादं सललितनर्तितवामपादपद्मा ।
इतरदतिलोलमादधाना पदमथ मन्मथमन्थरं जगाम ।। ७.१८ ।।

लधुललितपदं तदंसपीठद्वयनिहितोभयपाणिपल्लवान्या ।
सकठिनकुचचूचुकप्रणोदं प्रियमबला सविलासमन्विनाय ।। ७.१९ ।।

जघनमेलघपीवरोरु कृच्छ्रादुरुनिबिरीसनितम्बभारखेदि ।
दयिततमशिरोधरावलम्बिस्वभुजलताविभवेन काचिदूहे ।। ७.२० ।।

अनुवपुरपरेण बाहुमूलप्रहितभुजाकलितस्तनेन निन्ये ।
निहितदशनवाससा कपोले विषमवितीर्णपदं बलादिवान्या ।। ७.२१ ।।

अनुवनमसितभ्रुवः सखीभिः सह पदवीमपरः पुरोगतायाः ।
उरसि सरसरागपदलेखाप्रतिमतयानुययावसंशयानः ।। ७.२२ ।।
मदनरसमहौघपूर्णनाभीह्रदपरिवाहितर्ॐअराजयस्ताः ।
सरित इव सविभ्रमप्रयातप्रणदितहंसकभूषणा विरेजुः ।। ७.२३ ।।

श्रुतिपथमधुराणि सारसानामनुनदि सुश्रुविरे रुतानि ताभिः ।
विदधति जनतामनःशरव्यव्यधपटुमन्मथचापनादशङ्कां ।। ७.२४ ।।

मधुमथनवधूरिवाह्वयन्ति भ्रमरकुलानि जगुर्यदुत्सुकानि ।
तदभिनयमिवावलिर्वनानामतनुत नूतनपल्लवाङुगुलीभिः ।। ७.२५ ।।

असकलकलिकाकुलीकृतालिस्खलनविकीर्णविकासिकेशराणां ।
मरुदवनिरुहां रजो वधूभ्यः मुपहरन्विचकार कोरकाणि ।। ७.२६ ।।

उपवनपवनानुपातदक्षैरलिभिरलाभि यदङ्गनाजनस्य ।
परिमलविषयस्तदुन्नतानामनुगमने खलु सम्पदोऽग्रतःस्थाः ।। ७.२७ ।।

रथचरणधराङ्गनाकराब्जव्यतिकरसम्पदुपात्तस्ॐअनस्याः ।
जगति सुमनसस्तदादि नूनं दधति परिस्फुटमर्थतोऽभिधानं ।। ७.२८ ।।

अभिमुखपतितैर्गुणप्रकर्षादवजितमुद्धतिमुज्वलां दधानैः ।
तरुकिसलयजालमग्रहस्तैः प्रसभमनीयत भङ्गमङ्गनानां ।। ७.२९ ।।

मुदितमधुभुजो भुजेन शाखाश्चलितविशृङ्खलशङ्खकं धुवत्याः ।
तरुरतिशायितापराङ्गनायाः शिरसि मुदेव मुमोच पुष्पवर्षं ।। ७.३० ।।

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