Pitru Paksha, Moon and Soma

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पितृ पक्ष विज्ञान 1 : चंद्र, सोम और शुक्र

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कुछ लौकिक प्रश्न सदैव होते है?

– क्यूँ पितृ उपासना में मध्याहन का महत्व है?

– क्यूँ अमावस्या और कृष्ण पक्षका महत्व पितृ उपासना में है?

विषय श्रद्धा का है , प्रत्यक्ष प्रमाण से समझने का प्रयत्न भी करेंगे किन्तु श्रद्धा को केंद्र में रख कर । में भी सिख रखा हूँ तो जो भी लिखा है वह एकदम ही सिद्ध नहीं है ।

ज्योतिष शास्त्र अनुसार, पितृओ का वास चंद्र पर, उसके अंधकारमय भाग पर है ।

कृष्ण पक्षमें यह अंधकारमय चंद्र भाग का पृथ्वी पर सबसे अधिक **संसर्ग होता है जो की अमावस्या के दिन सबसे अधिक होता है।**

तो पितृओ का प्रभाव पृथ्वी स्थित, पिंड धारी आत्मों से उत्तम संपर्क कृष्ण पक्ष में संभव है । अमावस्या चंद्र की कृष्ण स्थिति का मध्याहन है तो स्वाभाविक है पितृ तर्पण के लिए वह उत्तम दिन भी है ।

तो मध्याहन तर्पण का अर्थ अमावस्या से है ।

अमावस्या तो हर चंद्र मास के प्रारंभ में आती है । तो पितृ तर्पण भी मासिक हो सकता है । दैनिक तर्पण भी मध्याह्न पर होता है क्यूंकी तब ही चंद्र के अभाव का उत्तम काल बनता है ।

अभी प्रश्न होता है की दैनिक तर्पण और मासिक अमावस्या का तर्पण तो ज्योतिष शास्त्र के ऊपर के वचन अनुसार समझ या गए की चंद्र के सोमरस के अभाव में पितृ गण सबसे प्रभावी होते है, किन्तु वार्षिक पितृ पक्ष क्यूँ होता है?

वार्षिक पितृ तर्पण समझने हेतु हमें पितृओ के काल की मनुष्य के काल की सापेक्षता से समझना पड़ेगा ।

पृथ्वी लोक का काल और चंद्र स्थित पितृ लोक के काल में अंतर है ।

पृथ्वी पर 1 वर्ष = पितृलोक में 1 दिन

365 दिन = 24 घंटे

15 दिन = 1 घंटा (60 मिनिट)

1 दिन = 4 मिनिट

**पितृ पक्ष के 15 दिन अर्थात पितृओ के मध्याह्न का 1 घंटा (भोजन समय)**

चलो यह सापेक्ष काल भी श्रद्धा के जोर से समझ लिया किन्तु हमारा तर्पण पितृ गण कैसे भोग करेंगे?

पितृ प्राण स्वरूप है । अवसान होने पर अन्नमय कोश अर्थात पिंड का पंचमहाभूत में विलीनीकरण होने पर मात्र सूक्ष्म शरीर रहता है । जीवंत अवस्था में भी पिंड के साथ विविध (ऋषि प्राण, देव प्राण, पितृ प्राण, गंधर्व प्राण, सुर-असुर प्राण इत्यादि) प्रकार के प्राण बने रहते है । सूक्ष्म स्वरूप में , हमारे प्राण का कुछ अंश भी पितृओ के प्राण का आभारी है। जैसे मकड़ी की जाली एक वृक्ष से ले कर अन्य वृक्ष तक मध्य के अवकाश के माध्यम से जुड़ा है, और उसका स्थान दोनों वृक्ष और मध्य अवकाश माना जाएगा, वैसे ही पितृ प्राण का पूरा जाल सदा जीवंत रहता है जिसमे कुछ एक प्राण हमारे पिंड में है तो कुछ हमारे जीवंत मातापिता में, कुछ हमारे सूक्ष्म रूप में पितृ लोक में विचरित पितृओ में तो कुछ अन्य योनि में जन्म ले कर जीवंत पिंडों में! (आधुनिक consciousness और quantum physics के विचार भी यह मानने लगे है – एक जाल के रूप में फैली वैश्विक चेतना का स्वीकार होने लगा है)

तो हमारा तर्पण प्राण के रूप में ग्रहण किया जाएगा, जिसका लाभ न मात्र सूक्ष्म रूप में रहते पितृओ को मिलेगा पर साथ साथ कर्मों के ऋण से बंधे सभी जीवंत पितृओ को पोषण मिलेगा (जिनमे आप स्वयं, आपके संतान और जीवंत मातापिता भी या जाते है)। और प्राण की स्थिरता और दृढ़ता से ही शरीर का पोषण हो कर स्वास्थ्य बना रहता है ।

इस तर्पण तृप्ति को अधिक समझने महाभारत के इस अंश पर चिंतन कीजिए :

> सम्पूर्ण लोकों में विख्यात स्वर्ग लोक में विचरने वाले महाभाग वैराज, अग्निष्वात्त, सोमपा, गार्हपत्य (ये चार मूर्त हैं), एक श्रृंग, चतुर्वेद तथा कला (ये तीन अमूर्त हैं) । ये सातों पितर क्रमशः चारों वर्णों में पूजित होते हैं ।

राजन् ! पहले इन पितरों के तृप्त होने से फिर सोम देवता भी तृप्त हो जाते हैं। ये सभी पितर उक्त सभा में उपस्थित हो प्रसन्नता पूर्वक अमित तेजस्वी प्रजापति ब्रह्मा जी की उपासना करते हैं।

**महाभारत सभा पर्व अध्याय 11 श्लोक 46-48**

>

अन्य एक विचार ऐसा भी है:

चंद्र का सीधा संबंध शुक्र धातु के पोषण से है। सोम के प्रत्यक्ष अभाव में (कृष्ण पक्ष), शुक्र पोषण प्रणाली सुचारु रूप से चलती रहें उसके लिए कदाचित पितृ प्राण उपासना का साधन ऋषिगण मे दिया है । मन से ही प्राण स्थिरता है और प्राण स्थिरता से ही शरीर का अस्तित्व है ।

मेरी अल्प बुद्धि के अनुसार (शास्त्र प्रमाण नहीं है, शास्त्र चिंतन का निचोड़ है , में मिथ्या भी हो सकता हूँ) , हमारा अस्तित्व सूर्य, अनिल और सोम आधारित है | इनमें अनिल का कार्य सूर्य और सोम रूपी शक्ति तो क्रियान्वित रखना है ! दक्षिणायन काल में , सोम उपासना अंतर्गत ही पितर उपासना आती है ! शरीर गत पित्त (सूर्य) भी इसी समय प्रकोपित होता है, सोम ही करता है उसका शमन ! पहले पितर उपासना , बाद में सोम उपासना !

जैसी शरीर में सूर्य और चंद्र नाड़ी है वैसे ही ब्रह्मांड में सूर्य और चंद्र मार्ग है | पितर सोम \ चंद्र मार्ग से संबंधित है |

उत्तरायण में सूर्य साधना

दक्षिणायन में सोम साधना

सूर्य नाड़ी = sympathetic nervous system

चंद्र नाड़ी = parasympathetic nervous system

The sympathetic and parasympathetic divisions typically function in opposition to each other, with one division exciting, triggering, or activating a response that is countered by the alternate system, which serves to relax, decrease, or negatively modulate a process.

The sympathetic division typically functions in actions requiring quick responses. The parasympathetic division functions with actions that do not require immediate reaction. The sympathetic division initiates the fight-or-flight response and the parasympathetic initiates the rest-and-digest or feed-and-breed responses.

The sympathetic and parasympathetic nervous systems are important for modulating many vital functions, including respiration and cardiac contractility. For example, the activities of both the sympathetic and parasympathetic systems maintains adequate blood pressure, vagal tone, and heart rate.

अभी तन्त्रिका तन्त्र (Nervous System) के संदर्भ में पिंड गत, सोम गत पितृ ओ का चिंतन कीजिए !

सोम उपासना से सूर्य नाड़ी प्रकोप को ठीक करना ?

पितर विषय में इतना विस्तृत वर्णन है महाभारत में ! पढ़ेंगे नहीं तो चिंतन नहीं होगा | चिंतन न होने पर इनके प्रति आस्था स्थिर न होगी ! इस बीच, असुरों का वैचारिक आक्रमण तो हो ही रहा है ! रामायण और महाभारत ही पढ़ लो तो जन्म सार्थक है ! 1-2 पीढ़ी तक इतिहास श्रवण न होने पर परंपरा टूटेगी और नास्तिकता रूपी अविद्या का आवरण लगने से स्वधर्म का लोप होगा | कुल विनाश |

Let us revive the tradition of listening Ramayana and Mahabharata!

Next part – पितृओ से आनुवंशिक गुण \ विकार

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