When it comes to following dharma based conducts, one must seek help from scriptures. When we cannot understand the scriptures, seek help from Guru(s) who have spent entire life understanding and acting as per Sashtra.
What Shri Krishna teaches in Gita?
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।5.18।।
।।5.18।।ज्ञानी महापुरुष विद्याविनययुक्त ब्राह्मणमें और चाण्डालमें तथा गाय हाथी एवं कुत्तेमें भी समरूप परमात्माको देखनेवाले होते हैं।
Here are some excerpts from the life of Shri Krishna:
When he visited Dwarka from Hastinapur, citizens were gathered to welcome him
प्रह्वाभिवादनाश्लेषकरस्पर्शस्मितेक्षणैः।
आश्वास्य चाश्वपाकेभ्यो वरैश्चाभिमतैर्विभुः ॥२२॥
The almighty Lord greeted everyone present by bowing His head, exchanging greetings, embracing, shaking hands, looking and smiling, giving assurances and awarding benedictions, even to the lowest in rank.
He did not hesitate to meet चांडाल.
This is not just about Shri Krishna, look at how society was treating Chandals. Had they been completely outcaste, this would be documented.
यन्नामधेयश्रवणानुकीर्तना-
द्यत्प्रह्वणाद्यत्स्मरणादपि क्वचित्।
श्वादोऽपि सद्यः सवनाय कल्पते
कुतः पुनस्ते भगवन् नु दर्शनात् ॥६॥
अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान्
यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् ।
तेपुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नुरार्या
ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥७ ॥
To say nothing of the spiritual advancement of persons who see the Supreme Person face to face, even a person born in a family of dog-eaters immediately becomes eligible to perform Vedic sacrifices if he once utters the holy name of the Supreme Personality of Godhead or chants about Him, hears about His pastimes, offers Him obeisances or even remembers Him.
मुनि उत्तंक ने वन्दना करके श्रीकृष्ण से पूछा- “माधव! हस्तिनापुर में सब कुशल से तो हैं? पांडवों और कौरवों में स्नेह-भाव बना रहता है न?” तपस्वी उत्तंक संसार की घटनाओं से बिलकुल बेखबर थे। उन्हें इतना भी पता न था कि इन्हीं दिनों दोनों में घोर संग्राम हुआ और उसमें कौरवों का विनाश हो गया। श्रीकृष्ण को ब्राह्मण मुनि का यह प्रश्न पहेली-सा लगा। क्षण-भर के लिये उन्हें जवाब न सूझा। थोड़ी देर के बाद उन्होंने युद्ध का सारा हाल बताया और कहा- “द्विजवर, कौरवों और पांडवों में घोर युद्ध हुआ। मैंने अपनी तरफ से शांति-स्थापन की कोई चेष्टा उठा न रखी। परन्तु कौरव कुछ मानते ही न थे। सब-के-सब युद्ध में मारे गये। भावी को कौन टाल सकता है?”
यह हाल सुनकर उत्तंक को क्रोध हो आया। उनकी आंखें लाल हो उठीं और होंठ फड़कने लगे। वह बोले,” वासुदेव! तुम्हारे देखते-देखते यह घोर अन्याय हुआ? तुमने कौरवों की रक्षा क्यों नहीं की? तुम चाहते तो उनको बचा सकते थे। तुम्हारे छल-कपट के कारण ही उनका नाश हुआ होगा। तुम्हीं उनके नाश का कारण बने होगे। मैं तुम्हें अभी शाप देता हूँ।”
उत्तंक मुनि की बात सुनकर श्रीकृष्ण हंसते हुए बोले- “महर्षि शांत होइये। आप तो बड़े तपस्वी हैं। क्रोध के कारण तपस्या का फल क्यों गंवाते हैं? पहले मेरी बात पूरी तरह सुन लीजिये तब फिर चाहे जो शाप दीजिये।” इसके बाद श्रीकृष्ण ने मुनि उत्तंक को ज्ञानचक्षु प्रदान करके अपना विश्वरूप दिखलाया और कहा- “संसार की रक्षा एवं धर्म के संस्थापन के लिये ही मैं तरह-तरह के जन्म लेता रहता हूँ। जिस समय जिस योनि में जन्म लेता हूँ उस-उस अवतार के धर्म का पालन करता हूँ। देवताओं में अवतरित होते समय देवताओं का-सा व्यवहार करता हूँ। यक्ष बना तो यक्ष का-सा और राक्षस बना तो राक्षसों का-सा व्यवहार करता हूँ। इसी प्रकार मनुष्य या पशु का जन्म लेने पर मनुष्य या पशु का-सा आचरण करता हूँ। जिस समय जिस ढंग से धर्म-स्थापन का उद्देश्य पूरा हो सके उस समय उसी रीति से काम लिया करता हूँ और अपना उद्देश्य सिद्ध कर लेता हूँ। कौरव लोग विवेक खो चुके थे। राजसत्त के मद में आकर उन्होंने मेरी कोई बात नहीं सुनी। मैंने उनसे विनती की, डराया-धमकाया भी और अपना विश्वरूप भी उन्हें दिखलाया। किन्तु मेरे सारे प्रयत्न विफल हुए। अधर्म का भूत उन पर सवार था। इस कारण वे अपना हठ नहीं छोड़ते थे। युद्ध की आग में वे स्वयं ही कूदे और नष्ट हुए। अतएव द्विज-श्रेष्ठ! इस बारे में मुझ पर क्रोध करने का कोई कारण नहीं है।”
उत्तंक मुनि ने जब यह देखा-सुना तो एकदम शांत हो गये। तब भगवान श्रीकृष्ण ने प्रसन्न होकर कहा- “मुनिवर, मैं अब आपको कुछ वरदान देना चाहता हूँ। आप जो चाहें मांग लें।” उत्तंक ने कहा, “हे अच्युत! तुम्हारा साक्षात्कार ही मेरे लिए वरदान स्वरूप है। तुम्हारे विश्वरूप के दर्शन करने का जो सौभाग्य प्राप्त हुआ है इससे मेरा जीवन सार्थक हुआ। बस, मुझे किसी और वरदान की चाह नहीं।” परन्तु भगवान ने बहुत आग्रह किया कि कोई वरदान मांगिये ही। उत्तंक मुनि मरुभूमि के आसपास घूमने-फिरने वाले निःस्पृह तपस्वी थे। अतः उन्होंने कहा- “प्रभो! यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो इतनी कृपा करो कि जब भी और जहाँ कहीं भी मुझे प्यास बुझाने के लिये जल की आवश्यकता हो, मुझे वहीं जल मिल जाया करे।”
“बस! और कुछ नहीं चाहिए?” यह कहकर श्रीकृष्ण हंस पड़े और मुनि को वरदान देकर द्वारका की ओर रवाना हो गये। बहुत दिन बाद, एक बार उत्तंक वन में फिर रहे थे तो उन्हें बड़ी प्यास लगी। बहुत ढूंढ़ने पर भी कहीं पानी नहीं मिला। तब उत्तंक ने श्रीकृष्ण का ध्यान किया और तुरन्त उनके सामने एक चाण्डाल खड़ा दिखाई दिया।
वह अर्धनग्न था और उसने फटे-पुराने चीथड़े पहन रक्खे थे। वे इतने मैले कि देखते ही घृणा उत्पन्न होती थी। चार-पांच शिकारी कुत्ते उसे घेरे हुए थे। हाथ में वह धनुष लिये था और उसके कंधे पर पानी से भरी मशक लटक रही थी। उत्तंक को देख चाण्डाल हंसता हुआ बोला- “मालूम होता है आप प्यास के मारे परेशान हैं। आपको देखकर मुझे बड़ी दया आती है। यह लीजिये पानी।” कहकर चाण्डाल ने मशक के मुंह पर बांस की टोंटी आगे बढ़ा दी।उस चाण्डाल की गन्दी सूरत,उसकी चमड़े की मशक और उसके पास खड़े शिकारी कुत्तों को देखकर उत्तंक ने नाक-भौं सिकोड़ ली और उसका पानी लेने से इनकार कर दिया। उत्तंक को बड़ा क्रोध हुआ कि श्रीकृष्ण ने मुझे झूठा वरदान कैसे दिया? उधर चाण्डाल सामने खड़ा बार-बार मशक बढ़ाकर कह रहा था कि पानी पी लें। ज्यों-ज्यों वह आग्रह करता था त्यों-त्यों मुनि उत्तंक का क्रोध भी बढ़ता जाता था। एकाएक चाण्डाल कुत्तों समेत आंखों से ओझल हो गया। चाण्डाल के यों अचानक अन्तर्धान हो जाने पर उत्तंक को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा कौन था यह? निश्चय ही चाण्डाल नहीं है। यह तो मेरी परीक्षा हुई थी। अरे रे, मुझसे भारी भूल हो गई। मेरे ज्ञान ने भी समय पर मेरा साथ न दिया। यदि चाण्डाल ही था तो बिगड़ क्या गया था? मैंने उसके हाथ का पानी पीने से इनकार करके बड़ी मूर्खता की। यह सोचकर उत्तंक मुनि पश्चात्ताप करने लगे।
थोड़ी देर में शंख और सुदर्शनचक्र लिये भगवान श्रीकृष्ण उत्तंक के सामने प्रकट हुए। उत्तंक ने व्यथित होकर कहा- “पुरुषोत्तम! मेरी इस तरह परीक्षा लेना क्या तुम्हारे लिये ठीक था? मैं ब्राह्मण हूँ। प्यास लगने पर भी किसी चाण्डाल के हाथों मशक वाला गन्दा पानी कैसे पी सकता था? तुमको मेरे लिये ऐसा पानी भेजना क्या उचित था?” श्रीकृष्ण हंसकर बोले- “मुनिवर! आपने पानी की इच्छा की तो मैंने देवराज से कहा कि उत्तंक मुनि को अमृत ले जाकर पिलाओ। देवराज ने कहा कि मनुष्य को अमृत नहीं पिलाया जा सकता। कोई और वस्तु भले ही भिजवाइए। अन्त में मेरे आग्रह करने पर देवराज ने तो मान लिया, पर कहा- ‘मैं चाण्डाल के रूप में जाऊंगा और पानी के रूप में अमृत पिलाऊंगा। यदि उत्तंक ने न पिया तो नहीं पिलाऊंगा।’ मैं देवराज की बात पर राजी हो गया कि आप तो बड़े ज्ञानी और महात्मा हैं। आपके लिये तो चाण्डाल और ब्राह्मण समान होंगे और चाण्डाल के हाथ का पानी पीने में नहीं सकुचायेंगे। अब आपके इस इनकार करने से इन्द्र के हाथों मेरी पराजय ही हो गई।” इतना कहकर श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये और उत्तंक बहुत ही लज्जित हुए।
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साभार krishnakosh.org
समताका अर्थ यह नहीं है कि समान रीतिसे सबके साथ रोटीबेटी (भोजन और विवाह) का बर्ताव करें। व्यवहारमें समता तो महान् पतन करनेवाली चीज है। समान बर्ताव यमराजका मौतका नाम है क्योंकि उसके बर्तावमें विषमता नहीं होती। चाहे महात्मा हो चाहे गृहस्थ हो चाहे साधु हो चाहे पशु हो चाहे देवता हो मौत सबकी बराबर होती है। इसलिये यमराजको समवर्ती (समान बर्ताव करनेवाला) कहा गया है (टिप्पणी प0 307)। अतः जो समान बर्ताव करते हैं वे भी यमराज हैं।पशुओंमें भी समान बर्ताव पाया जाता है। कुत्ता ब्राह्मणकी रसोईमें जाता है तो पैर धोकर नहीं जाता। ब्राह्मणकी रसोई हो अथवा हरिजनकी वह तो जैसा है वैसा ही चला जाता है क्योंकि यह उसकी समता है। पर मनुष्यके लिये यह समता नहीं है प्रत्युत महान् पशुता है। समता तो यह है कि दूसरेका दुःख कैसे मिटे दूसरेको सुख कैसे हो आराम कैसे हो ऐसी समता रखते हुए बर्तावमें पवित्रता निर्मलता रखनी चाहिये। बर्तावमें पवित्रता रखनेसे अन्तःकरण पवित्र निर्मल होता है। परन्तु बर्तावमें अपवित्रता रखनेसे खानपान आदि एक करनेसे अन्तःकरणमें अपवित्रता आती है जिससे अशान्ति बढ़ती है। केवल बाहरका बर्ताव समान रखना शास्त्र और समाजकी मर्यादाके विरुद्ध है। इससे समाजमें संघर्ष पैदा होता है।वर्णोंमें ब्राह्मण ऊँचे हैं और शूद्र नीचे हैं ऐसा शास्त्रोंका सिद्धान्त नहीं है। ब्राह्मण उपदेशके द्वारा क्षत्रिय रक्षाके द्वारा वैश्य धनसम्पत्ति आवश्यक वस्तुओँके द्वारा और शूद्र शरीरसे परिश्रम करके सभी वर्णोंकी सेवाकरे। इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरे अपने कर्तव्यपालनमें परिश्रम न करें प्रत्युत अपने कर्तव्यपालनमें समान रीतिसे सभी परिश्रम करें। जिसके पास जिस प्रकारकी शक्ति विद्या वस्तु कला आदि है उसके द्वारा चारों ही वर्ण चारों वर्णोंकी सेवा करें उनके कार्योंमें सहायक बनें। परन्तु चारों वर्णोंकी सेवा करनेमें भेदभाव न रखें।आजकल वर्णाश्रमको मिटाकर पार्टीबाजी हो रही है। आज वर्णाश्रममें इतनी लड़ाई नहीं है जितनी लड़ाई पार्टीबाजीमें हो रही है यह प्रत्यक्ष बात है। पहले लोग चारों वर्णों और आश्रमोंकी मर्यादामें चलते थे और सुखशान्तिपूर्वक रहते थे। आज वर्णाश्रमकी मर्यादाको मिटाकर अनेक पार्टियाँ बनायी जा रही हैं जिससे संघर्षको बढ़ावा मिल रहा है। गाँवोंमें सब लोगोंको पानी मिलना कठिन हो रहा है। जिनके अधिकारमें कुआँ है वे कहते हैं कि तुमने उस पार्टीको वोट दिया है इसलिये तुम यहाँसे पानी नहीं भर सकते। माँ बाप और बेटा तीनों अलगअलग पार्टियोंको वोट देते हैं और घरमें लड़ते हैं। भीतरमें वैर बाँध लिया कि तुम उस पार्टीके और हम इस पार्टीके। कितना महान् अनर्थ हो रहा हैयदि समता लानी हो तो दूसरा व्यक्ति किसी भी वर्ण आश्रम धर्म सम्प्रदाय मत आदिका क्यों न हो उसे सुख देना है उसका दुःख दूर करना है और उसका वास्तविक हित करना है। उनमें यह भेद हो सकता है कि आप रामराम कहते हैं हम कृष्णकृष्ण कहेंगे आप वैष्णव हैं हम शैव हैं आप मुसलमान हैं हम हिन्दू हैं इत्यादि। परन्तु इससे कोई बाधा नहीं आती है। बाधा तब आती है जब यह भाव रहता है कि वे हमारी पार्टीके नहीं हैं इसलिये उनको चाहे दुःख होता रहे पर हमें और हमारी पार्टीवालोंको सुख हो जाय। यह भाव महान् पतन करनेवाला है। इसलिये कभी किसी वर्ण आदिके मनुष्योंको कष्ट हो तो उनके हितकी चिन्ता समान रीतिसे होनी चाहिये और उन्हें सुख हो तो उससे प्रसन्नता समान रीतिसे होनी चाहिये। जैसे ब्राह्मणों और हरिजनोंमें संघर्ष हुआ। उसमें हरिजनोंकी हार और ब्राह्मणोंकी जीत होनेपर हमारे मनमें प्रसन्नता हो अथवा ब्राह्मणोंकी हार और हरिजनोंकी जीत होनेपर हमारे मनमें दुःख हो तो यह विषमता है जो बहुत हानिकारक है। ब्राह्मणों और हरिजनों दोनोंके प्रति ही हमारे मनमें हितकी समान भावना होनी चाहिये। किसीका भी अहित हमें सहन न हो। किसीका भी दुःख हमें समान रीतिसे खटकना चाहिये। यदि ब्राह्मण दुःखी है तो उसे सुख पहुँचायें और यदि हरिजन दुःखी है तो उसे सुख न पहुँचायें ऐसा पक्षपात नहीं होना चाहिये प्रत्युत हरिजनको सुख पहुँचानेकी विशेष चेष्टा होनी चाहिये। हरिजनोंको सुख पहुँचानेकी चेष्टा करते हुए भी ब्राह्मणोंके दुःखकी उपेक्षा नहीं होनी चाहिये। इस प्रकार किसी भी वर्ण आश्रम धर्म सम्प्रदाय आदिको लेकर पक्षपात नहीं होना चाहिये। सभीके प्रति समान रीतिसे हितका बर्ताव होना चाहिये। यदि कोई निम्नवर्ग है और उसे हम ऊँचा उठाना चाहते हों तो उस वर्गके लोगोंके भावों और आचरणोंको शुद्ध और श्रेष्ठ बनाना चाहिये उनके पास वस्तुओंकी कमी हो तो उसकी पूर्ति करनी चाहिये परन्तु उन्हें उकसाकर उनके हृदयोंमें दूसरे वर्गके प्रति ईर्ष्या और द्वेषके भाव भर देना अत्यन्त ही अहितकर घातक है तथा लोकपरलोकमें पतन करनेवाला है। कारण कि ईर्ष्या द्वेष अभिमान आदि मनुष्यका महान् पतन करनेवाले हैं। यदि ऐसे भाव ब्राह्मणोंमें हैं तो उनका भी पतन होगा और हरिजनोंमें हैं तो उनका भी पतन होगा। उत्थान तो सद्भावों सद्गुणों सदाचारोंसे ही होता है।
भोजन वस्त्र मकान आदि निर्वाहकी वस्तुओंकी जिनके पास कमी है उन्हें ये वस्तुएँ विशेषतासे देनी चाहिये चाहे वे किसी भी वर्ण आश्रम धर्म सम्प्रदाय आदिके क्यों न हों। सबका जीवनयापन सुखपूर्वक होना चाहिये। सभी सुखी हों सभी नीरोग हों सभीका हित हो कभी किसीको किञ्चिन्मात्र भी दुःख न हो (टिप्पणी प0 308) ऐसा भाव रखते हुए यथायोग्य बर्ताव करना ही समता है जो सम्पूर्ण मनुष्योंके लिये हितकर है।