“पिताजी, क्या आपको भी एक दृश्यमें अनेक दृश्य दीखते है?”
“समझा नहीं..”
“जैसे की आकाशमें बादल है वह बादल तो दीखते है पर कभी कभी हाथी, घोडा भी!!”
“हाँ यह सामान्य है…हम जो कुछ भी देखते है उसको भूतकाल के सबसे निकटम अनुभवके साथ तुलना करके अपने अनुभव को दृढ करते है…पुराने अनुभव को नए अनुभव के साथ जोड़ते है..इससे हम वास्तविकता को परिशोधित कर सकते है|”
“यहाँ देखो! मुझे और माँ को इन पत्तो में तितली दिखाई दे रही है!!”
“आहा!!चलो एक काम करते है…पत्तोको तितलीके रंग में रंग देते है!”
हाँ हाँ …चलो!”
“और एक बात…जो पत्ते आपको तितली लगे है वह बड़ा गुणकारी है!इसे कचनार कहते है!! वसंत ऋतू और शरद ऋतूमें पुष्प आते है! फिर कभी बात करेंगे!!”
संवाद एक, विषय अनेक!
बात निकली थी दृष्टि भ्रम की…पर हमने बात की मन,भ्रम,आयुर्वेद,कला…
कचनार और वसंत का संबंध – डॉ हितेश जानी को सुनिए!
आयुर्वेदिक मत से – लाल कंचनार शीतल, सारक, अग्निदीपक, कसैला, ग्राही तथा कफ, पित्त, वर्ण, कृमि, कंठमाला, कुष्ठ, वात, गुदाभ्रंश और रक्त पित्त को दूर करता है।
इसके फूल शीतल, कसैले, रूखे, ग्राही, मधुर, हल्के तथा पित्त, क्षय, प्रदर, खांसी और रक्त रोग दूर करते है।
सफेद कचनार ग्राही, कसैला, मधुर, रुचि कारक, रुक्ष तथा श्वास, खांसी, पित्त, रक्त विकार और प्रदर रोग का नाश करता है। शेष गुण लाल कंचनार के समान ही रहते हैं।
पीली कंचनार – पीली कचनार ग्राही, दीपन, वर्णरोपन, कसैली तथा मूत्रकच्छ, कफ और वात नाशक है।
महर्षि सुश्रुत के मतानुसार इस वनस्पति के सब हिस्से दूसरी औषधियों के साथ सर्प दंश और बिच्छू के बीष पर उपयोग में लिए जाते हैं। सर्पदंश में इसके ताजा बीजों की लुगदी बनाकर सिरके के साथ काटे हुए स्थान पर लगाते हैं।
कंचनार ठंडी प्रकृति की और खुश्क है किसी किसी के मत से यह समशीतोष्ण है।
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