श्राद्ध पक्ष में कौआ ही क्यूँ?

Marut

Dharma

श्राद्ध पक्ष में कौआ ही क्यूँ?

मेरी अल्प बुद्धि अनुसार, दो बात है |

(१) कुछ एक पशु पक्षी है जिनको पंचभौतिक से पर जीवों का सज्ञान रहता है | कौआ ऐसा एक जीव है |
(२) यह तय नहीं है कि आप केवल कौवे को ही भोजन दें। कौआ आपको विरासत में मिली मानसिक सीमाओं \कमजोरियों का प्रतिनिधित्व करता है। कौए के माध्यम से, पितृ दोष को याद कर उसे दूर करने के प्रयत्न करने है |

हम न केवल भौतिक शरीर को विरासत के रूप में प्राप्त करते हैं, बल्कि शरीर के अन्य स्तर (संदर्भ: पंचकोश) को मातृ और पैतृक बीजों से प्राप्त करते हैं।

हमारे पूर्वजों के मनोमय कोष में उनकी सीमाओं या परिस्थितियों (या विभिन्न डिग्री के किसी अन्य मानसिक विकार) के कारण अस्थिर प्रकृति के निशान हो सकते हैं। कौआ आपके मनोमय शरिर का विरासत दोष है, जो मुख्य रूप से डगमगाते विक्षिप्त मन का प्रतिनिधित्व करता है। हर कोई अलग-अलग तीव्रता के चंचलता से पीड़ित है। वात + तमस प्रकार के लोग अधिक पीड़ित होते हैं।

यह समय इस दोष का ध्यान रखने और इसे दूर करने का है।

चूंकि हम संदर्भ के बिना कुछ भी कल्पना नहीं कर सकते हैं, इसलिए वर्ष के इस समय के दौरान कौवे को खिलाना महत्वपूर्ण है ताकि हमें अपने मन की चंचल प्रकृति और उस पर तत्काल नियंत्रण के बारे में याद दिलाया जा सके।

तो फिर पूर्वजों को श्राद्ध तर्पण कैसे मिलेगा, उनका पुनर्जन्म नहीं होता?

निश्चित पूर्णजन्म होता है ! किसी का १ वर्ष में, तो किसी का १०० वर्षों पश्चात !हमारा प्रॉब्लेम है की हम मात्र आधुनिक विज्ञान के चश्मे से अस्तित्व को देखते है !

जहां तक तर्पण का संबंध है, वायु पुराण में यही कहा गया है:

मृत्यु के बाद, कर्म खाते या गुप्त चित्र के अनुसार, हमें अलग-अलग गति प्राप्त होती है। कोई देवता तो कोई पितर तो प्रेत, कभी कभी वासनाओं की प्रबलता के कारण जीव काल चक्र में फस भी जाते है !

So how really my tarpan reaches to my ancestors?

नाममंत्रास्तथा देशा भवान्तरगतानपि ।
प्राणिनः प्रीणयन्त्येते तदाहारत्वमागतान् ।।
देवो यदि पिता जातः शुभकर्मानुयोगतः ।
तस्यान्नममृतं भूत्वा देवत्वेऽप्युनुगच्छति ।।
मर्त्यत्वे ह्यन्नरूपेण पशुत्वे च तृणं भवेत् ।
श्राद्धान्नं वायुरूपेण नागत्वे ऽ प्युपतिष्ठति ।।

The food is not just physical form (अन्नमय). It is after ritual performed, layer of your मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय & आनंदमय शरीर. So based on the योनी where ancestor is right now, different form reaches to them by various cycles of transformation of पिंड offered.

यथा गोष्ठे प्रणष्टां वै वत्सो विन्देत मातरम् ।
तथा तं नयते मंत्रो जन्तुर्यत्रावतिष्ठते ।
नाम गोत्रं च मंत्रश्च दत्तमन्नं नयन्ति तम् ।
अपि योनिशतं प्राप्तांस्तृप्तिस्ताननुगच्छति ।।

जैसे बछड़ा हजारों गायों में से अपनी मां को ढूंढ लेता है, उसी तरह उचित नाम, गोत्र, श्राद्ध और मंत्र के साथ, जो कुछ भी चढ़ाया जाता है, वह सभी अलग-अलग पूर्वजों तक पहुंच जाता है।

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