Guru-Shishya and Education

Nisarg Joshi

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Education
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विद्यालय चयन : शिक्षण या संस्कार की दिशा

वर्तमान काल में जब माताएँ-पिताएँ अपने बालकों के लिए विद्यालय का चयन करते हैं, तब वे अनेक बाह्य बातों का विचार करते हैं। सामान्यतः वे निम्नलिखित बातों को देखते हैं:

  • विद्यालय की भौतिक संरचना
  • पूर्व छात्रजन के प्राप्तांक (अंकों के साथ-साथ अब यह भी देखा जाने लगा है कि बालक चरित्र, देहबली तथा मर्यादाबोध में कितना परिपक्व हुआ है)
  • शिक्षण शुल्क
  • पाठ्यक्रम की पद्धति (जैसे CBSE, ICSE, IB आदि)
  • सहगामी क्रियाएँ (क्रीड़ा, संगीत, नाट्य, योग इत्यादि)

यह सब एक दृष्टि से उचित प्रतीत होता है। परंतु यदि हम शिक्षण को केवल विषयज्ञान नहीं, अपितु जीवन के सम्यक निर्माण की प्रक्रिया मानते हैं, तो हमें अधिक गम्भीरता से यह विचार करना होगा कि सत्य शिक्षण क्या है और वह किस प्रकार प्राप्त होता है


शिक्षण की मूल धारा : गुरु समर्पण भाव तथा शिष्यभाव

मेरे मत में विद्यालय चयन कोई क्लिष्ट प्रक्रिया नहीं है। यदि हम दो मूलभूत तत्वों को समझ लें, तो यह अत्यंत सरल हो जाता है:

1. बालकों में गुरु समर्पण भाव का विकास करें:

माताएँ-पिताएँ अपने बालकों में ऐसा संस्कार उत्पन्न करें जिससे वे ज्ञान के प्रति श्रद्धा तथा समर्पण रखें।
गुरु केवल विषय पढ़ाने वाले नहीं होते, वे जीवन के दर्शक होते हैं।
यदि बालक में गुरु समर्पण भाव हो, तो वह किसी भी परिस्थिति में किसी भी साधारण से साधारण आचार्य से भी अमूल्य ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
गुरु समर्पण भाव वह भाव है जहाँ संवाद एवं क्रिया के बिना भी केवल समर्पण के माध्यम से ज्ञान की उत्पत्ति होती है।

2. समाज में निष्काम गुरुओं की रचना हो:

केवल विद्यालय की संख्या बढ़ाने से समाज समुन्नत नहीं होता।
हमें ऐसे आचार्य चाहिए जो कर्तव्यपरायणता एवं सेवाभाव से शिक्षण करें।
समाज का कर्तव्य है कि वह ऐसे गुरुजनों का पोषण करे, उनके जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करे, जिससे वे पूर्ण एकनिष्ठा से भावी पीढ़ी को उत्तम संस्कार दे सकें।


गीता का सन्देश : अर्जुन का शिष्यभाव

महाभारत के रणक्षेत्र में जब अर्जुन मोहवश कर्तव्य से विमुख हो गया, तब उसने श्रीकृष्ण के श्रीचरणों में आत्मसमर्पण करते हुए कहा:

“कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।। 2.7।।”

तात्पर्य:
“हे प्रभो! मैं दैन्यदोष से युक्त एवं धर्म विषयक मोह से ग्रस्त चित्त वाला हूँ। अतः जो निश्चित रूप से श्रेयस्कर हो, वह मुझे कहिए। मैं आपका शिष्य हूँ, आपकी शरण में हूँ, मुझे उपदेश दीजिए।”

यह केवल अर्जुन की कथा नहीं है, अपितु प्रत्येक बालक की अन्तर्मन की पुकार बन सकती है – यदि हम उसमें ऐसा शिष्यभाव उत्पन्न कर सकें।


समकालीन शिक्षा में यह भाव कहाँ है?

आज शिक्षा एक प्रतिस्पर्धात्मक व्यापार बन गई है।
बालक को केवल अधिकतम अंक प्राप्त करने वाला यंत्र मान लिया गया है।
इस दौड़ में हम यह भूल जाते हैं कि शिक्षा का मूल उद्देश्य व्यक्तित्व विकास एवं चरित्र निर्माण होना चाहिए।

यदि बालक में गुरु समर्पण भाव हो, और समाज में निष्काम गुरुजन हों, तो शेष – जैसे भवन, शुल्क, पाठ्यक्रम आदि – सभी गौण हो जाते हैं।
ज्ञान संवाद से नहीं, समर्पण से उत्पन्न होता है।


उपसंहार (निष्कर्ष)

अपने बालकों को यह संस्कार दीजिए कि वे ज्ञान के समक्ष आत्मसमर्पण करना सीखें।
उन्हें ऐसी दृष्टि प्रदान कीजिए जिससे वे प्रत्येक शिक्षणकर्ता में गुरु का दर्शन कर सकें।
और समाज को यह कर्तव्य समझना चाहिए कि वह ऐसे गुरुजनों का निर्माण करे, जो केवल विषय न सिखाएँ, अपितु धर्म, विवेक एवं जीवन-दृष्टि भी प्रदान करें।

जहाँ गुरु समर्पण भाव एवं शिष्यभाव का समागम होता है, वहीं से सत्य शिक्षा का आरम्भ होता है।


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