श्राद्ध विज्ञान भाग 13 – तर्पण के साधन
एकान्तशीली विमृशन् पक्वापक्वेन वर्तयन् ।
पितॄन् देवांश्च वन्येन वाग्भिरद्भिश्च तर्पयन् ।। १० ।।
एकान्तमें रहकर आध्यात्मिक तत्त्वका विचार किया करूँगा और कच्चा-पक्का जैसा भी फल मिल जायगा, उसीको खाकर जीवन-निर्वाह करूँगा। जंगली फल-मूल, मधुर वाणी और जलके द्वारा देवताओं तथा पितरोंको तृप्त करता रहूँगा ।।
शांति पर्व – अध्याय 9
युधिष्ठिरका वानप्रस्थ एवं संन्यासीके अनुसार जीवन व्यतीत करनेका निश्चय स्थित पितृ और देवता दर्पण का यह संदर्भ है |
देवता छोड़ो मेरी पीढ़ी के पढ़े लिखे तो अपने पितृ (पुरखों) का ठीक से आभार व्यक्त करना भी भूल गए है।
“क्या श्राद्ध और क्या तर्पण, सब अंधश्रद्धा” की भाषा बढ़ चढ़कर बोल रहे हैं।
चोरों की परंपरा, और क्या…
देवता और पितृओ को क्या चाहिए?
अधिक कुछ नहीं – श्रद्धा युक्त मधुर वाणी से उनका स्वागत और जल से तर्पण
इतना तो कर ही सकते है न ! 🙂 चोरों की परंपरा न खड़ी करने से बचें !