If we are reading Agni Purana and we don’t cover a chaper on गवायुर्वेद, it will be considered significant miss of learning! 🙂
गवायुर्वेद
अग्निपुराणम्/अध्यायः २९२
धन्वन्तरिरुवाच
गोविप्रपालनं कार्य्यं राज्ञा गोशान्तिमावदे ।
गावः पवित्रा माङ्गल्या गोषु लोकाः प्रतिष्ठिताः ।। २९२.२ ।।
शकृन्मूत्रं परं तासामलक्षमीनाशनं परं ।
गवां कण्डूयनं वारि श्रृह्गस्याघौघमर्द्दनम् ।। २९२.३ ।।
धन्वन्तरि कहते हैं – सुश्रुत ! राजा को गौओं का पालन करना चाहिये | अब मैं ‘गोशान्ति’ का वर्णन करता हूँ | गौएँ पवित्र एवं मंगलमयी हैं | गौओं में सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित हैं | गौओं का गोबर और मूत्र अलक्ष्मी (दरिद्रता) – के नाश का सर्वोत्तम साधन है | उनके शरीर को खुजलाना, सींगों को सहलाना और उनको जल पिलाना भी अलक्ष्मी का निवारण करनेवाला हैं |
शब्द सिन्धु
स्थाने (sthaane) = rightly
स्थापय (sthaapaya) = please keep
स्थापयति (sthaapayati) = to put, to keep
स्थापयित्वा (sthaapayitvaa) = placing
स्थालिका (sthaalikaa) = (f) plate, dish
स्थावर (sthaavara) = not moving
स्थावराणां (sthaavaraaNaaM) = of immovable things
स्थास्यति (sthaasyati) = remains
स्थितं (sthitaM) = situated
स्थितः (sthitaH) = situated
स्थितधीः (sthitadhiiH) = one fixed in KRishhNa consciousness
स्थितप्रज्ञः (sthitapraGYaH) = transcendentally situated
स्थितप्रज्ञस्य (sthitapraGYasya) = of one who is situated in fixed KRishhNa consciousness
स्थिताः (sthitaaH) = are situated
स्थितान् (sthitaan.h) = standing
स्थिति (sthiti) = position
स्थितिं (sthitiM) = situation
स्थितिः (sthitiH) = situation
स्थिती (sthitii) = existing
स्थितौ (sthitau) = situated
स्थित्वा (sthitvaa) = being situated
स्थिर (sthira) = fixed
स्थिरराशि (sthiraraashi) = Fixed Signs
स्थिरं (sthiraM) = firm
स्थिरः (sthiraH) = still
स्थिरता (sthirataa) = steadiness
स्थिरबुद्धिः (sthirabuddhiH) = self-intelligent
स्थिरां (sthiraaM) = stable
स्थिराः (sthiraaH) = enduring
स्थिराङ्कः (sthiraa~NkaH) = (m) constant number/variable
स्थिरैः (sthiraiH) = with firm or strong (limbs)
स्थूल (sthuula) = (adj) strong, big
स्थूलः (sthuulaH) = (adj) fat
पाठ
सुभाषित
अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्रााणत्यागेऽपि संस्थिते |
न च कॄत्यं परित्याज्यम् एष धर्म: सनातन: ||
The work which is not to be done (because it is bad) should not be done even if you have to loose your life. And the work which has to be done (because it is your duty) – should be continued to be done even if it costs your own life! This is the sanatana Dharma.
पठन -> मनन -> स्मरण -> आत्मसात
गवायुर्वेद
अग्निपुराणम्/अध्यायः २९२
धन्वन्तरिरुवाच
गोविप्रपालनं कार्य्यं राज्ञा गोशान्तिमावदे ।
गावः पवित्रा माङ्गल्या गोषु लोकाः प्रतिष्ठिताः ।। २९२.२ ।।
शकृन्मूत्रं परं तासामलक्षमीनाशनं परं ।
गवां कण्डूयनं वारि श्रृह्गस्याघौघमर्द्दनम् ।। २९२.३ ।।
रोचना विषरक्षोघ्नी ग्रासदः स्वर्गगो गवां ।
यद्गृहे दुःखिता गावः स याति नरकन्नरः ।। २९२.४ ।।
परगोग्रासदः स्वर्गी गोहितो ब्रह्मलोकभाक् ।
गोदानात्कीर्त्तनाद्रक्षां कृत्वा चोद्धरते कुलम् ।। २९२.५ ।।
गवां श्वासात् पवित्रा भूस्पर्शनात्किल्विषक्षयः ।
गोमृत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम् ।। २९२.६ ।।
एकरात्रोपवासश्च श्वपाकमपि शोधयेत् ।
सर्व्वाशुभविनाशाय पुराचरितमीश्वरैः ।। २९२.७ ।।
प्रत्येकञ्च त्र्यहाभ्यस्तं महासान्तपनं स्मृतं ।
सर्वकामप्रदञ्चैतत् सर्व्वाशुभवीमर्द्दनम् ।। २९२.८ ।।
कृच्छ्रातिकृच्छ्रं पयसा दिवसानेकविंशतिं ।
निर्म्मलाः सर्व्वकामाप्त्या स्युर्गगाः स्युर्न्नरोत्तमाः ।। २९२.९ ।।
त्र्यहमुष्णं पिवेन्मूत्रं त्र्यहमुष्णं घृतं पिवेत् ।
त्र्यहमुष्णं पयः पीत्वाः वायुभक्षः परं त्र्यहम् ।। २९२.१० ।।
तप्तकृच्छ्रव्रतं सर्व्वपापघ्नं ब्रह्मलोकदं ।
शीतैस्तु शीतकृच्छ्रं स्याद्ब्रह्मोक्तं ब्रह्मलोकदं ।। २९२.११ ।।
गोमूत्रेणाचरेत्स्नानं वृत्तिं कुर्य्याच्च गोरसैः ।
गोभिर्व्रजेच्च भुक्तासु भुञ्जीताथ च गोव्रती ।। २९२.१२ ।।
मासेनैकेन निष्पापो गोलोकी स्वर्गगो भवेत् ।
विद्याञ्च गोमतीं जप्त्वा गोलोकं परमं व्रजेत् ।। २९२.१३ ।।
गौतैर्न्नृत्येरप्सरोभिविंमाने तत्र मोदते ।
गावः सुरभयो नित्यं गावो गुग्गुलगन्धिकाः ।। २९२.१४ ।।
गावः प्रतिष्ठा भूतानां गावः स्वस्त्ययनं परं ।
अन्नमेव परं गावो देवानां हविरुत्तमम् ।। २९२.१५ ।।
पावनं सर्व्वभूतानां क्षरन्ति च वदन्ति च ।
हविषा मन्त्रपूतेन तर्पयन्त्वमरान्दिवि ।। २९२.१६ ।।
ऋषीणामग्निहोत्रेषु गावो होमेषु योजिताः ।
सर्व्वेषामेव भूतानां गावः शरणमुत्तमं ।। २९२.१७ ।।
गावः पचित्रं परमं गावो माङ्गल्यमुत्तमं ।
गावः स्वर्गस्य सोपानं गावो धन्याः सनातनाः ।। २९२.१८ ।।
नमो गोभ्यः श्रीमतीभ्यः सौरभेयीभ्य एव च ।
नमो ब्रह्मसुताभ्यश्च पवित्राब्यो नमो नमः ।। २९२.१९ ।।
ब्राह्मणाश्चैव गावश्च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरेकत्र तिष्ठति ।। २९२.२० ।।
देवब्राह्मणगोसाधुसाध्वीभिः सकलं जगत् ।
धार्य्यते वै सदा सस्मात् सर्व्वे पूज्यतमा मताः ।। २९२.२१ ।।
पिवन्ति यत्र तत्तीर्थं गह्गाद्या गाव एव हि ।
गवां माहात्म्यमुक्तं हि चिकित्साञ्च तथा श्रृणु ।। २९२.२२ ।।
श्रृङ्गामयेषु धेनूनां तैलं दद्यात् ससैन्धवं ।
श्रृङ्गवेरबलामांसकल्कसिद्धं समाक्षिकं ।। २९२.२३ ।।
कर्णशूलेषु सर्वेषु मञ्जिष्ठाहिङ्गुसैन्धवैः ।
सिद्धं तैलं प्रदातव्यं रसोनेनैथ वा पुनः ।। २९२.२४ ।।
विल्वमूलमपामार्गन्धातकी च सपाटला ।
कुटजन्दन्तमूलेषु लेपात्तच्छूलनाशनं ।। २९२.२५ ।।
दन्तशूलहरैर्द्रव्यैर्घृतं राम विपाचितं ।
मुखरोगहरं ज्ञेयं जिह्वारोगेषु सैन्धवं ।। २९२.२६ ।।
श्रृङ्गवेरं हरिद्रे द्वे त्रिफला च गलग्रहे ।
हृच्छूले वस्तिशुले च वातरोगे क्षये तथा ।। २९२.२७ ।।
त्रिफला घृतमिश्रा च गवां पाने प्रशस्यते ।
अतीसारे हरिद्रे द्वे पाठाञ्चैव प्रदापयेत् ।। २९२.२८ ।।
सर्वेषु कोष्ठरोगेषु तथा शाखागदेषु च ।
श्रृङ्गवेरञ्च भार्गीञ्च कासे श्वासे प्रदापयेत् ।। २९२.२९ ।।
दातव्या भग्नसन्धाने प्रियङ्गुर्लवणान्विता ।
तैलं वातहरं पित्ते मधुयष्टीविपाचितं ।। २९२.३० ।।
कफे व्योषञ्च समधु सपुष्टकरजोऽस्रजे ।
तैलाज्यं हरितालञ्च भग्नक्षतिश्रृतन्ददेत् ।। २९२.३१ ।।
माषास्तिलाः सगोधूमाः पशुक्षीरं घृतं तथा ।
एषां पिण्डी सलवणा वत्सानां पुष्टिदा त्वियं ।। २९२.३२ ।।
बलप्रदा विषाणां स्याद् ग्रहनाशाय धूपकः ।
देवदारु वचा मांसी गुग्गुलुहिङ्गुसर्षपाः ।। २९२.३३ ।।
ग्रहादिगदनाशाय एष धुपो गवां हितः ।
घष्टा चैव गवां कार्या धूपेनानेन धूपिता ।। २९२.३४ ।।
अश्वगन्धातिलैः शुक्लं तेन गौः क्षीरिणी भवेत् ।
रसायनञ्च पिन्याकं मत्तो यो धार्य्यते गृहे ।। २९२.३५ ।।
गवां पुरीषे पञ्चम्यां नित्यं शान्त्यै श्रियं यजेत् ।
वासुदेवञ्च गन्धाद्यैरपरा शान्तिरुच्यते ।। २९२.३६ ।।
अश्वयुक्शुक्लपक्षस्य पञ्चदश्यां यजेद्धरिं ।
हरिरुद्रमजं सूर्य्यं श्रियमग्निं घृतेन च ।। २९२.३७ ।।
दधि सम्प्राश्य गाः पूज्य कार्य्यं वह्निप्रदक्षिणं ।
वृषाणां योजयेद् युद्धं गीतवाद्यरवैर्वहिः ।। २९२.३८ ।।
गवान्तु लवणन्देयं ब्राह्मणानाञ्च दक्षिणा ।
नैमित्तिके माकरादौ यजेद्विष्णुं सह श्रिया ।। २९२.३९ ।।
स्थणअडिलेव्जे मध्यगते कदिक्षु केशरगान् सुरान् ।
सुभद्राजो रविः पूज्यो बहुरूपो बलिर्वहिः ।। २९२.४० ।।
खं विश्वरूपा सिद्धिस्च ऋद्धिः शान्तिश्च रोहिणी ।
दिग्धेनवो हि पूर्वाद्याः कृशरैश्चन्द्र ईश्वरः ।। २९२.४१ ।।
दिक्पालाः पद्मपत्रेषु कुम्भेष्वग्नौ च होमयेत् ।
क्षीरवृक्षस्य समिधः सर्षपाक्षततण्डुलान् ।। २९२.४२ ।।
शतं शतं सुवर्णञ्च कांस्यादिकं द्विजे ददेत् ।
गावः पूज्या विमोक्तव्याः शान्त्यै क्षीरादिसंयुताः ।। २९२.४३ ।।
शालिहोत्रः सुश्रुताय हयायुर्वेदमुक्तवान् ।
पालकाप्योऽङ्गराजाय गजायुर्वेदमब्रवीत् ।। २९२.४४ ।।
इत्यादिमहापुराणे आग्नेये शान्त्यायुर्वेदो नाम द्विनवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ।।
गवायुर्वेद
धन्वन्तरि कहते हैं – सुश्रुत ! राजा को गौओं का पालन करना चाहिये | अब मैं ‘गोशान्ति’ का वर्णन करता हूँ | गौएँ पवित्र एवं मंगलमयी हैं | गौओं में सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित हैं | गौओं का गोबर और मूत्र अलक्ष्मी (दरिद्रता) – के नाश का सर्वोत्तम साधन है | उनके शरीर को खुजलाना, सींगों को सहलाना और उनको जल पिलाना भी अलक्ष्मी का निवारण करनेवाला हैं | गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, दधि, घृत और कुशोदक – यह ‘षडंग; (पंचगव्य) पीने के लिये उत्कृष्ट वस्तु तथा दु:स्वप्नों आदि का निवारण करनेवाला हैं | गोरोचना विष और राक्षसों को विनाश करती हैं | गौओं को ग्रास देनेवाला स्वर्ग को प्राप्त होता हैं | जिस के घर में गौएँ दु:खित होकर निवास करती हैं, वह मनुष्य नरकगामी होता हैं | दुसरे की गाय को ग्रास देनेवाला स्वर्ग को और गोहित में तत्पर ब्रम्हलोक को प्राप्त होता हैं | गोदान, गो-माहात्म्य-कीर्तन और गोरक्षण से मानव अपने कुल का उद्धार कर देता हैं | यह पृथ्वी गौओं के श्वास से पवित्र होती हैं | उनके स्पर्श से पापों का क्षय होता हैं | एक दिन गोमूत्र, गोमय, घृत, दूध, दधि और कुश का जल एवं एक दिन उपवास चांडाल को भी शुद्ध कर देता है | पूर्वकाल में देवताओं ने भी समस्त पापों के विनाश के लिये इसका अनुष्ठान किया था | इनमें से प्रत्येक वस्तुका क्रमश: तीन-तीन दिन भक्षण करके रहा जाय, उसे ‘महासान्तपन व्रत’ कहते हैं | यह व्रत सम्पूर्ण कामनाओं को सिद्ध करनेवाला और समस्त पापों का विनाश करनेवाला है | केवल दूध पीकर इक्कीस दिन रहने से ‘कृच्छातिकृच्छ व्रत’ होता हैं | इसके अनुष्ठान से श्रेष्ठ मानव सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को प्राप्तकर पापमुक्त हो स्वर्गलोक में जाते हैं | तीन दिन गरम गोमूत्र, तीन दिन गरम घृत, तीन दिन गरम दूध और तीन दिन गरम वायु पीकर रहे | यह ‘तप्तकृच्छ व्रत’ कहलाता हैं, जो समस्त पापों का प्रशमन करनेवाला और ब्रह्मलोक की प्राप्ति करानेवाला है | यदि इन वस्तुओं को इसी क्रम से शीतल करके ग्रहण किया जाय, तो ब्रम्हाजी के द्वारा कथित ‘शीतकृच्छ’ होता है, जो ब्रम्हलोकप्रद है ||१-११||
एक मासतक गोव्रती होकर गोमूत्र से प्रतिदिन स्नान करे, गोरस से जीवन चलावे, गौओं का अनुगमन करे आयर गौओं के भोजन करने के बाद भोजन करे | इससे मनुष्य निष्पाप होकर गोलोक को प्राप्त करता हैं | गोमती विद्या के जप से भी उत्तम गोलोक की प्राप्ति होती हैं | उस लोक में मानव विमान में अप्सराओं के द्वारा नृत्य-गीत से सेवित होकर प्रमुदित होता है | गौएँ सदा सुरभिरूपिणी हैं | वे गुग्गुल के समान गंध से संयुक्त हैं | गौएँ समस्त प्राणियों की प्रतिष्ठा हैं | गौएँ परम मंगलमयी हैं | गौएँ परम अन्न और देवताओं के लिये उत्तम हविष्य हैं | वे सम्पूर्ण प्राणियों को पवित्र करनेवाले दुग्ध और गोमूत्र का वहन एंव क्षरण करती हैं और मन्त्रपूत हविष्य से स्वर्ग में स्थित देवताओं को तृप्त करती हैं | ऋषियों के अग्निहोत्र में गौएँ होमकार्य में प्रयुक्त होती हैं | गौएँ सम्पूर्ण मनुष्यों की उत्तम शरण हैं | गौएँ परम पवित्र, महामंगलमयी, स्वर्ग की सोपानभुत, धन्य और सनातन (नित्य) हैं | श्रीमती सुरभि-पुत्री गौओं को नमस्कार हैं | ब्रम्हसुताओं को नमस्कार हैं | पवित्र गौओं को नमस्कार है | ब्रह्मसुताओं को नमस्कार हैं | पवित्र गौओं को बारंबार नमस्कार हैं | ब्राह्मण और गौएँ एक ही कुल की दी शाखाएँ हैं | एक के आश्रय में मन्त्र की स्थिति हैं और दूसरी में हविष्य प्रतिष्ठित हैं | देवता, ब्राह्मण, गौ, साधू और साध्वी स्त्रियों के बलपर यह सारा संसार टिका हुआ हैं, इसीसे वे परम पूजनीय हैं | गौएँ जिस स्थानपर जल पीती हैं, वह स्थान तीर्थ हैं | गंगा आदि पवित्र नदियाँ गोस्वरुपा ही हैं | सुश्रुत ! मैंने यह गौओं के माहात्म्य का वर्णन किया, अब उनकी चिकित्सा सुनो ||१२-२२||
गौओं के श्रुंगरोगों में सोंठ, खरेटी और जटामांसी को सिलपर पीसकर उसमें मधु, सैन्धव और तैल मिलाकर प्रयोग करे | सभी प्रकार के कर्णरोगों में मंजिष्ठा, हिंग और सैन्धव डालकर सिद्ध किया हुआ तैल प्रयोग करना चाहिये या लहसुन के साथ पकाया हुआ तैल प्रयोग करना चाहिये | दंतशूल में बिल्वमूल, अपामार्ग, धान की पाटला और कुटज का लेप करे | वह शुलनाशक हैं | दंतशूल का हरण करनेवाले द्रव्यों और कुटकों घृत में पकाकर देनेसे मुखरोगों का निवारण होता हैं | जिव्हा-रोगों में सैन्धव लवण प्रशस्त हैं | गलग्रह रोग में सोंठ, हल्दी, दारुहल्दी और त्रिफला विहित हैं | ह्रद्रोग , वस्तिरोग, वातरोग और क्षयरोग में गौओं को घृतमिश्रित त्रिफला का अनुपान प्रशस्त बताया गया है | अतिसार में हल्दी, दारुहल्दी और पाठा (नेमुक) दिलाना चाहिये | सभी प्रकार के कोष्ठगत’ रोगों में, शाखा (पैर-पुच्छादी) गत रोगों में एवं कास, श्वास एवं अन्य साधारण रोगों में सोंठ, भारंगी देनी चाहिये | हड्डी आदि टूटनेपर लवणयुक्त प्रियंगु का लेप करना चाहिये | तैल वातरोग का हरण करता हैं | पित्तरोग में तैल में पकायी हुई मुलहठी, कफरोग में मधुसहित त्रिकुट (सोंठ, मिर्च और पीपल) तथा रक्तविकार में मजबूत नखों का भस्म हितकर है | भग्नक्षत में तैल एवं घृत पकाया हुआ हरताल दे | उड़द, टिल, गेहूँ, दुग्ध, जल और घृत – इनका लवणयुक्त पिंड गोवत्सों के लिये पुष्टिप्रद हैं | विषानी बल प्रदान करनेवाली हैं | ग्रहबाधा के विनाश के लिये धुप का प्रयोग करना चाहिये | देवदारु, वचा, जटामांसी, गुग्गुल, हिंगू और सर्षप- इनकी धुप गौओं के ग्रहजनित रोगों का नाश करने में हितकर हैं | इस धुप से धुपित करके गौओं के गले में घंटा बाँधना चाहिये | असगंध और तिलों के साथ नवनीत का भक्षण कराने से गौ दुग्धवती होती हैं | जो वृष घरमें मदोन्मत हो जाता हैं, उसके लिये हिंगू परम रसायन हैं ||२३-२५||
पंचमी तिथि को सदा शांति के निमित्त गोमयपर भगवान् लक्ष्मी-नारायण का पूजन करे | यह ‘अपरा शान्ति कही गयी हैं | आश्विन के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा को श्रीहरि का पूजन करे | श्रीविष्णु, रूद्र, ब्रह्मा, सूर्य, अग्नि और लक्ष्मी का घृत से पूजन करे | दही भलीभाँति खाकर गोपुजन करके अग्नि की प्रदक्षिणा करे | गृह के बहिर्भाग में गीत और वाद्य की ध्वनि के साथ वृषभयुद्ध का आयोजन करे | गौओं को लवण और ब्राह्मणों को दक्षिणा दे | मकरसंक्रांति आदि नौमित्तिक पर्वोपर भी लक्ष्मीसहित श्रीविष्णु को भूमिस्थ कलम के मध्य में और पूर्व आदि दिशाओं में कमल-केसरपर देवताओं की पूजा करे | कमल के बहिर्भाग में मंगलमय ब्रह्मा, सूर्य, बहुरूप, बलि, आकाश, विश्वरूप का तथा ऋद्धि, सिद्धि, शान्ति और रोहिणी आदि दिग्धेनु, चन्द्रमा और शिव का कृशर (खिचड़ी) से पूजन करे | द्विक्पालों की कलशस्थ पद्मपत्रपर अर्चना करे | फिर अग्नि में सर्षण, अक्षत, तंडुल और खैर वृक्ष की समिधाओं का हवन करे | ब्राह्मण को सौ-सौ भर सुवर्ण और काँस्य आदि धातु दान करे | फिर क्षीरसंयुक्त गौओं की पूजा करके उन्हें शान्ति के निमित्त छोड़े ||३६-४३||