कैसी होरी मचाई, कन्हाई
अचरज लख्यो ना जाई, कैसी होरी मचाई…
एक समय श्री कृष्णा प्रभो को, होरी खेलें मन आई
एक से होरी मचे नहीं कबहू, याते करूँ बहुताई
यही प्रभु ने ठहराई, कैसी होरी मचाई…
पांच भूत की धातु मिलाकर, एण्ड पिचकारी बताई
चौदह भुवन रंग भीतर भर के, नाना रूप धराई
प्रकट भये कृष्ण कन्हाई, कैसी होरी मचाई…
पांच विषय की गुलाल बना के, बीच ब्रह्माण्ड उड़ाई
जिन जिन नैन गुलाल पड़ी वह, सुध बुध सब बिसराई
नहीं सूझत अपनहि, कैसी होरी मचाई…
वेद अनेक अनजान की सिला का, जिसने नैन में पायी
ब्रह्मानंद तिस्का तम नास्यो, सूझ पड़ी अपनहि
ओरि कछु बनी न बनाई, कैसी होरी मचाई…
He did not like playing एकाकी होली so he created the world, us. Infinitely going on…Universal होलिकोत्सव! It goes on forever and the colors sprinkled by him makes us blind frequently. 🙂
Life is a play. Play! Do not miss the play! But at the end of the day, do not forget to remove गुलाल from eyes regularly, daily, so that you have a clear vision of the play. 🙂
You cannot escape from the play! (Well, you can with intense Sadhna but ..well you know..it will take some 1000+ births 🙂 ) Do you clean your आत्मिक द्रष्टि regularly? By removing गुलाल of life,विषय विकार, वासना ? 🙂
Best wishes!