पिछले दशक में हृदयघात और अन्य हृदय रुग्णावस्था के उदाहरण बढ़ रहे है ।
युवा अवस्था में ही हृदय बल क्षीण हो रहा है और लोग घात से अपमृत्यु को पा रहे है।
नियमित व्यायाम करने वाले भी हृदयघात मर रहे है।
मेदस्व न होने पर भी हृदयघात हो रहा है।
जब रुग्ण अवस्था समाज में सर्वव्यापक हो तो उसके पीछे के सर्वव्यापक कारण को भी समझना चाहिए।
एक उपेक्षित पर मुख्य कारण है हमारे आहार-विहार-विचार-वातावरण के कारण नियमित कोष्ठ स्थित जीवाणुका व्यापक संहार ।
(Gut microbes killing by our lifestyle)
आयुर्वेद ने तो यह बात बताई हुई है।
उत्क्लेशः ष्ठीवनं तोदः शूलो हृल्लासकस्तमः
अरुचिः श्यावनेत्रत्वं शोषश्च कृमिजे भवेत् ९
भ्रमक्लमौ सादशोषौ ज्ञेयास्तेषामुपद्र वाः
कृमिजे कृमिजातीनां श्लैष्मिकाणां च ये मताः १०
सुश्रुत संहिता अनुसार कफ़ज हृदयरोग के मूल में कोष्ठ जीव है। और यह स्थिति किसी भी स्वस्थ व्यक्ति में कभी भी हो सकती है ।
- प्राकृतिक रूप से पूरे शरीर में शरीर कोश संख्या से 10 गुण अधिक जीवाणु शरीर में रहते है और सतत हमारा अस्तित्व टिकने में लगे रहते है । जैसे की देवदूत न हो!
- सतत तनाव युक्त जीवन से, आहार में प्रोसेस फूड लेने से, पानी में flouride और cholorine की अधिक मात्रा से, अधिक अम्ल(Acidic) या अधिक क्षारयुक्त(alpkaline) भोजन या जल ग्रहण करने से, नियमित हेमंत-शिशिर-वसंत में अभ्यंग न करने से, रात्री जागरण से, इंद्रियों के सतत भोग से, कोष्ठ की दीवार टूट सी जाती है । इसके कारण कोष्ठ में स्थित जीवाणुओ की प्रकूटिक जाती बदल जाती है और देव रूप कृमि से भूत\पिशाच\राक्षस\असुर\नाग\गंधर्व का रूप धारण कर शरीरी और मानसिक विकार उत्पन्न करते है। जब इनकी संख्या बढ़ जाती है और कोष्ठ की दीवार टूटी होती है (chemicals से या तनाव से) तो यह कृमि शरीर के सभी अंगों में जा कर युद्ध आरंभ कर देते है । सुश्रुत अनुसार, हृदयघात भी उनके कारण ही होता है।
आधुनिक विज्ञान तो अभी भी कोष्ठ जीवाणु और हृदय की बीमारी पर कोई निष्कर्ष पर नहीं आई है।
आचार्य सुश्रुत को शिरोमान्य रख, कफ़ज हृदयघात से बचने हेतु सदाचार युक्त संयमित जीवन को पसंद करें।
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