संयम का शिक्षण

Marut

Teacher

कुमार अवस्था के बच्चों के शिक्षण का दायित्व अभिभावकों ने दिया है तो जीवनमूल्यों पर चर्चा चल रही है ।

आज ३ सप्ताह होने आए, बच्चों के साथ संयम के विविध पहलू पर, कहानी, केस स्टडी, पोस्टर, क्रिया कलाप, चर्चा, संवाद जैसे माध्यमों से बात कर रहे है। मुख्य रूप में अर्थ, काल और स्वाद संयम।

३ सप्ताह बाद परिणाम यह है की बच्चोंने व्यर्थ खर्च पर स्वयं लगाम लगा दी है। घर का खर्च हिसाब लिखने लगे है। सभी बच्चे अपनी दैनंदिनी लिखने लगे है (जिससे उनकी मन की स्थिरता बढ़ी है, आत्म चिंतन की आदत लग रही है और अपने समय के संयम हेतु जागृति बढ़ रही है)। साथ साथ आयुर्वेद अभ्यास तो चल ही रहा है तो आयुर्वेद के गुरुजी के साथ हुए परामर्श के आधार पर आहार विवेक पर भी काम हो रहा है। उसके परिणाम साक्षी बनने का आनंद है।

आप के घर कुमार अवस्था के बच्चे है तो यह तीन संयम पर कार्य करें।

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चर्चा का एक अंश

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सुदामा – The one who is entangled in the web of life. His self-realization comes through his eternal friend.

सुदामा का अर्थ है इन्द्रियो का दमन , निग्रह करने वाला । इन्द्रियो के निग्रह के बिना न तो विद्या मिलती है और न ही फलती है । विद्यार्थी के लिए इन्द्रिय दमन बड़ा आवश्यक है

” काक चेष्टा , बको ध्यानं श्वान निद्रा तथैव च ।

अल्पहारी गृहत्यागी इति विद्यार्थिणः पञ्च लक्षणम् ।”

सुदामा के साथ मित्रता करने वाला ही सरस्वती की उपासना कर सकता है । सुदामा उस संयमी व्यक्ति का प्रतीक है , जो परमात्मा को प्राप्त करना चाहता है ।

परमात्मा के दर्शन हेतु संयम के बिना विद्या प्राप्त नही हो सकती , संयम बिना जीवन दिव्य नही बन पाता । संयम और वैराग्य को बढ़ाना है ।

सुदामा needs दामोदर as सखा.

Who is eternal friend?

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द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।

तयारन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यश्रत्रन्यो अभिचाकशीति ॥

एक साथ रहने वाले तथा परस्पर सख्यभाव रखनेवाले दो पक्षी जीवात्मा एवं परमात्मा, एक हि वृक्ष शरीर का आश्रय लेकर रहते हैं । उन दोनों में से एक जीवात्मा तो उस वृक्ष के फल, कर्मफलों का स्वाद ले-लेकर खाता है । किंतु दूसरा, ईश्वर उनका उपभोग न करता हुआ केवल देखता रहता है ।

कठोपनिषद्

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जानासि किं सखायं मां येनाग्रे विचचर्थ ह ॥ ५२ ॥

अपि स्मरसि चात्मानंअ अविज्ञातसखं सखे ।

हित्वा मां पदमन्विच्छन् भौमभोगरतो गतः ॥ ५३ ॥

हंसावहं च त्वं चार्य सखायौ मानसायनौ ।

अभूतामन्तरा वौकः सहस्रपरिवत्सरान् ॥ ५४ ॥

I am your eternal friend. You may remember that many times in the past you have consulted Me.

My dear friend, even though you cannot immediately recognize Me, can’t you remember that in the past you had a very intimate friend? Unfortunately, you gave up My company and accepted a position as enjoyer of this material world.

My dear gentle friend, both you and I are exactly like two swans. We live together in the same heart, which is just like the Mānasa Lake. Although we have been living together for many thousands of years, we are still far away from our original home.

श्रीमद्‌भागवत महापुराण

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Do good actions and surrender all actions to the great friend as उपायन. At the end of life, we hardly have handful of rice (Small amount of goof karma) to offer as उपायन (gift). Does not matter of eternal friend. Surrender. Do good and present it.

But to do this, you need support of सात्विक बुद्धि as पत्नी like Sudama had. It was Sudama’s wife (Satvik intellect of Jiva) who guides him to meet Krishna (Paramatma).

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