जैसे पिछली एक पोस्ट में बताया था ,अग्नि पूजक बनना ही पड़ेगा | स्वास्थ्य के मूल में अग्नि ही है | जन्म से अग्नि हमारे शरीर से जुड़ जाती है (Mitochondrial legacy?) और इसके चार प्रकार है |
- समाग्नि (गर्भाधान समय पर त्रिदोष समता युक्त मातृ प्रकृति)
- विषमाग्नि (गर्भाधान समय पर वातज मातृ प्रकृति)
- तीक्ष्णाग्नि (गर्भाधान समय पर पित्तज मातृ प्रकृति)
- मंदाग्नि (गर्भाधान समय पर कफ़ज मातृ प्रकृति)
यह प्राकृतिक है | जीवन पर्यंत रहती है | समाग्नि अच्छी और बाकी सब खराब ऐसा नहीं है | अग्नि के इन चार रूप से ही वर्ण (!) और बल भी निर्धारित होता है | जन्म प्रकृति अनुसार आहार-विहार विधि भी निर्धारित होती है |
प्रज्ञा अपराध (वासना ग्रस्त बुद्धि के अनुचित उपयोग या अज्ञान से) जब हम प्राकृतिक अग्नि का स्वरूप समझे बिना कार्य करते है तब अग्नि मंद होती है और धीरे धीरे शरीर रुग्ण स्थिति में जाता है |
विशुद्ध आयुर्वेदाचार्य (जिनको आयुर्वेद में पूर्ण श्रद्धा है और मात्र आयुर्वेद चिकित्सा ही करते है, अंतःकरण शुद्ध है ) से मिलिये , अपना अग्नि परीक्षण कीजिए और प्रकृति अनुसार आहार-विहार बदलाव कीजिए|