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मनुष्य जन्म मिले, वह भी भारत में, और विद्यार्थी अवस्था में इंद्रिय संयम के पाठ न सिखाए जाते हो ऐसा परिवार, मित्रगण, आचार्यगण और स्कूल मिलना, एक अभिशाप ही तो है।
हमारे जीवन के सभी प्रपंच के मूल में है सुख अनुभूति की चिरकाल तक स्थिरता। भौतिक आयाम से परे जीवन के तीन घटकों से जुड़ी है। आत्मा, इन्द्रिय और मानस।
आत्मविश्वास या जीवन के प्रति उत्साह सुखी जीवन का मुख्य लक्षण है। यदि जिजीविषा ही नहीं तो समझो सुख नहीं और मनुष्य के रोगी होने की संभावना अधिक है।
आयुर्वेद आचार्यों ने खुशी की जड़ों या कारणों को समझने के लिए गहराई से खोज की है।सुख य हर्ष शब्द का प्रयोग आनंद शब्द के पर्यायवाची रूप में किया जाता है।
आचार्य चरक कहते हैं कि हर्ष उत्पन्न करने वाली सबसे अच्छी चीज़ तत्वबोध है यानी आत्म साक्षात्कार ही परमानन्द है।
प्रसन्नता का मूल कारण ‘इंद्रियजय’ (इंद्रियों पर नियंत्रण) बताया गया है। इसका अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति का अपने इंद्रियों के साथ-साथ अपने मन पर नियंत्रण ही है जो सुखआनंदहर्ष का कारण बन सकती है। यह सुख लंबे समय तक चलने वाला होता है और अपने साथ संतुष्टि का भाव भी लेकर आता है।
क्या शिक्षण का उद्देश्य स्थायी आनंद नहीं होना चाहिए?
पर आजकल भोगवृत्ति बढ़ाकर इंद्रियों का क्षय करने का शिक्षण दिया जा रहा है।
घर, परिवार, स्कूल, मीडिया, सभी स्थानों पर इंद्रिय भोग का ही बोलबाला है।
और फिर अवसाद ग्रस्त हो कर, व्यसन में आनंद के क्षण ढूँढने लगते है।
यथार्थ शिक्षण के अभाव में, दुर्लभ भारत भूमि पर मनुष्य जन्म व्यर्थ जा रहे है ।
तत्त्वावबोधोहर्षणानां | (Char. Samh. 30.15)
इन्द्रियजयो नन्दनानां| (Char. Samh. 30.15)