हरिजन : नवाबों का तोहफा : Scavenging and invention of Scavenger caste

Nisarg Joshi

Caste, SocialEngineering


भारतीय इतिहास 101 – Scavenging and invention of Scavenger caste(हरिजन)

by (सुबोध कुमार – Email: subodh1934@gmail.com )


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नवाबों का तोहफा

मुस्लिम काल से भारत वर्ष के सामान्य जीवन में जो परिवर्तन आए इन में एक है पर्दा, जिस के रहते घरों में ही शौचालय बनाने की प्रथा चल पड़ी। भारत वर्ष मे शौच के लिए घर से दूर जंगल जाने, प्रातः भ्रमण, मंदिर शिवालय से, गोशाला इत्यादि से होते हुए, नित्य कर्म से निवृक्त हो कर अपनी दैनिक दिन चर्या आरम्भ करने की प्रथा थी। मुस्लिम नवाब साहब और बेग़मों को बाहर शौच के लिए जंगल जाना पसन्द नहीं था। नवाब परिवार के लिए घर मे शौचालय एक सामन्ती रिवाज बन गया. सामान्यतः हिन्दु भी जो शौच के लिए बाहर जंगल जाते थे, आलस्य सुविधा और नवाबी फैशन के कारण अपने घरों में शौचालय बनवाने लगे। (Unfortunately, all new homes are built like this 🙁 )

जो हिन्दु भाई दरिद्गता के कारण हिन्दु बने रहने का जज़िया टैक्स नहीं दे पाते थे और अपना हिन्दु धर्म छोड़ कर मुसलमान नहीं बनना चाहते थे उन्हे ज़बरदस्ती नवाब साहब के घरों के शौचालय साफ करने का काम करना होता था। यहीं से जाति गत हाथ से सिर पर मैला ढ़ोने की कुप्रथा का आरम्भ हुआ। कइ शताब्दियों से मुस्लिम शासन काल से आरम्भित प्रथा के अनुसार सब घरों से मैला ढोने का काम हमारे अपने वह हिन्दु भाई करते रहे हैं, जिन्हें अपना हिन्दु धर्म छोड़ना किसी भी हालत मे पसन्द नहीं था चाहे मैला ढ़ोने का निकृष्ट काम करना पड़े।

यह भी एक सोचने की बात है कि जिन हिन्दु भाइयों को पाकिस्तान से निकलने नहीं दिया गया वे मुख्य रूप से मैला ढ़ोने वाले ही थे। उन के साथ, उन की स्त्रियों बच्चों के साथ आजतक प्रतिदिन जो अत्याचार, बलात्कार होते रहते हैं वह किसी मानवाधिकार संस्था के ध्यान का विषय नहीं रहे हैं।
हम हिन्दु धर्म पर अडिग रहने वाले उन भाइयों पर गर्व करने और सम्मान देने के स्थान पर उन को नीच काम करने वाले अस्पृष्य मानते चले आ रहे हैं। गान्धी जी ने इन भाइयों को सम्मान देते हुए ‘हरिजन ‘ नाम दिया । स्वयं गान्धी जी अपने आश्रम मे और उनके सब आश्रम निवासी बारी बारी से अपने हाथ से लैट्रीन साफ करते थे। पर सब कान्ग्रेसियों को जो गान्धी जी के सहारे उच्च राजनैतिक नेता बनते रहे हैं , गान्धी जी के जीवन काल ही में उन के आश्रम कि पहली क्लास का अपना मैला स्वयं साफ करने का पहला ही पाठ गान्धी जी भी नहीं सिखा सके।

वह लोग जो गान्धी जी के आश्रम की पहली ही क्लास में अस्पृश्यता छोड़ने का पाठ नही पढ़ पाए , वह गान्धी जी के अनुयाई कान्ग्रेसी कहलाने वाले क्या कान्ग्रेसी कहलाने का हक रखते हैं? हां उन के उत्तराधिकारिओं की सरकार ने तो हाथ से मैला ढ़ोने के काम को कानूनन बन्द कर के अपना दयित्व निभा लिया , जैसे भारतवर्ष के तत्कालीन प्रधान मंत्री ने 1962 में चीन के आक्रमण के समय भारतीय सेना अध्यक्ष को “throw the Chinese out of India” का अदेश दे कर अपना पल्ला झाड़ लिया था। लेकिन सरकार के इस कानून बना देने से क्या भारतवर्ष में दलित्तोद्धार हो गया? हाथ से सफाई करने वाले क्या कुछ और करने लगे? हां आरक्षण नीति को चला कर कान्ग्रेसी सरकार ने दलितोद्धार के नाम पर वोट ज़रूर भुनाए.

अंग्रेजों कि पेशकश

आज के युग में वैज्ञानिक प्रगति के आधार पर घरों पर हमारे मलमूत्र कूड़े कचरे को संभालने के लिए विज्ञान और इन्जीनियरिंग के मेल से ऐसी व्यवस्था बनाने की आवश्यकता रही है जो पर्यावरण के अनुकूल इस मलमूत्र का प्रबन्धन कर सके। जनसंख्या मे लगातार भारी वृद्धि भी इस समस्या को और भीषण बनाने में अपना योग दान देती रही है।

अन्ग्रेज़ों के आने पर और नागरिक क्षेत्रों के विस्तार पर विज्ञान और पाश्चात्य तकनीकी प्रगति ने फ्लश लेट्रीन और भूमिगत सीवर प्रणाली को जन्म दिया। अब हर घर के थोड़े से मैले को एक बाल्टी भर स्वच्छ पीने लायक पानी से फ्लश(It is part of our living now) द्वारा हमारी आखों से ओझल कर के भूमि गत सीवर मे पहुंचा दिया जाने लगा। इस मैले को सारे नगर के नीचे एक मल की एक शोभा यात्रा करा कर सारे नगर से इकट्ठा कर के, बाहर किसी नदी नाले मे बहाना आरम्भ हो गया। इस प्रकार अपने जल स्रोतों को दूषित करने की नैतिकता पाश्चात्य सभ्यता में कभी विचारणीय नहीं थी। यह कभी किसी बुद्धिजीवी, इन्जीनियर/ वैज्ञानिक के सोचने का विषय नही रहा कि आखिर इतने सारे स्वच्छ पेय जल का ऐसा मैला सीवर में ढ़केलने में दुरुपयोग कहां तक ठीक रहेगा।

आज जब पेय जल की इस बर्बादी से उत्पन्न पेय जल के अभाव के कारण पीने के पानी की एक बोतल 12 रुपए मे लेनी पड़ती है, तब भी हम विवश हैं कि अपने फ्लश में इतना पेय जल बर्बाद कर रहे है । और जिस दूषित जल को हम अपनी नदियों मे बहा रहे हैं , उन्ही नदियों से हमारा पेय जल भी तो आता है। हम अपने पेय जल को योजना बद्ध तरीके से मलमूत्र से दूषित कर के नाले नदियों मे छोड़ कर समाज को दूषित जल पीने के लिए बाध्य कर रहे हैं। क्या अनजाने मे हमारा प्रशासन समाज मे जलप्रदूषन को बढ़ावा दे कर ,भयंकर रोग भी योजना बद्ध तरीके से नहीं बढ़ा रहे?

लगभग 3 दशक पहले यह बात ध्यान में आई कि नदियों के जल को प्रदूषन से रोकना चाहिए। नागरिक क्षेत्रों के सब मैले को स्वच्छ बनाने के लिए STP सीवेज ट्रीटमैन्ट प्लान्ट लगाने की योजनाएं कार्यान्वित हो चलीं। STP लगभग सब नगरों में सब नालों को नदियों में छोड़ने से पहले लगाए जाते रहे हैं। देश का लगभग पचास हज़ार करोड़ रुपया खर्च भी हो गया। परन्तु हमारी नदियों के जल में मैले की मात्रा टस से मस नहीं होती दिख रही। इस नदियों के जल को स्वच्छ करने के लिए और अधिक STP लगाने के लिए धन का साधन जुटाया जा रहा है। इतने सारे STP लगने के बावजूद भी नदियों का जल स्वच्छ क्यों नही हो रहा?

इन्जीनियर यह कहते हैं कि STP छोटे पड़ रहे हैं। और बड़े लगने चाहिएं। सरकार अपने हाथ खड़े कर देती है कि इतना आर्थिक साधन जुटाने के लिए पैसा नहीं है। STP प्रणाली क्लोरीन जैसे रसायनिकों द्वारा दूषित जल के जीवाणु मार कर जल में वायुमन्डल से आक्सीजन ले कर बिजली के पम्पों द्वारा चलती है। STP संयन्त्र बिजली से चलते हैं। हमारे देश में बिजली कितनी आती है? जब बिजली नही होती- जो कि राजधानी दिल्ली तक में आधा समय नहीं रहती -उस दशा मे सारा मल मूत्र STP सन्यन्त्र लगे रहने पर भी बिना ऊपचार के सारा दूषित जल नदियों मे जाने से रोक पाना सम्भव नहीं होता। सारा समय जाचं तर्क वितर्क मे निकल रहा है। इस बीच में सीवर चलते रहेंगे, नदियों मे मैला जाता रहेगा आखिर लोग रोज़ शौच जाना तो बन्द नहीं कर देंगे कि थम जाओ अभी इन्जीनियर साहब सरकार से पैसा ले कर बड़े STP लगाने वाले हैं। STP के अतिरिक्त कोइ और विकल्प हम अभी तक स्थापित नहीं कर पाए है। कुछ चर्चा हो तो विदेशों से आधुनिक तकनीक मंगाने की बात चल पड़ती है।

आज विश्व के उन्नत देशों में इस STP प्रणाली के स्थान पर पर्यावरण के अनुकूल प्रणाली लगाई जाती हैं। कोइ भी विदेशी तकनीक स्थानीय समंस्याओं का समाधान नहीं कर सकती। हमारे अपने देश के इन्जीनियर इन योजनाओं मे क्यों अपना दायित्व नही निभा पाते? क्या हमारे देश के सब इन्जीनियर एटम विद्युत ऊर्जा संयन्त्र बनाएंगे, या IT उद्योग से जुड़ कर अमरीका जैसे अमीर देशों की कालसेन्टर में चपड़ास गीरी की नौकरी? जो आज के बदलते वैश्विक आर्थिक संकट से जूझ्ता अमेरिका के भविष्य में इतना आसान नहीं रहेगा। हमारे स्थानीय रूप से स्थापित इन्जीनियरिंग कालेजों का सब से पहला दायित्व स्थानीय समाज की ऐसी समस्याओं का समाधान कर के समाज के प्रति अपनी सेवा देना होना चाहिये।

गंगा माता का श्राप

आज यह परिणाम है कि हमारी नदियों में स्वच्छ निर्मल जल के स्थान पर मल मूत्र बहने लगा है। यहां तक कि गंगक्ष मैया भी इस पाप से बची न रही। जैसे हमारे देश में जैसे वैज्ञानिकों की कमी रही हो, अमेरिका केवैज्ञानिकों ने गन्गा के जल पर अनुसन्धान में यह पाया है कि गन्गा जल में मल मूत्र के अत्यिधिक मात्रा मे होने के कारण गन्गा के समस्त जल के ज़ूप्लान्क्टन zooplankton ( जलीय सूक्ष्म प्राणी जो मछलियों का आहार होते है) मे ट्यूमर tumor हो गए है। अब गन्गा मे पाई जाने वाली सब मछलियों में भी ऐसे ही रोग पाए जा रहे हैं। इस का दुष्प्रभाव गन्गा से जुड़ी सारी खाद्य शृंखला पर पड़ रहा है। साधारण भाषा में गन्गा मे सारी मछलियां कैंसर जैसे रोगाणुओं से प्रभावित हैं। जिस जल से हमारी सब सबज़ी इत्यादि की सिंचाई होती है वह सब जल भयानक केंसर जैसे रोग के तत्व हमारे आहार मे पहुंचा रहा है। यह बात केवल गंगा पर ही नहीं सब नदियों पर उतनी ही लागू होती है।

सरकार ने तो सन्त मन्डल के आन्दोलन से प्रभावित हो कर गन्गा को एक राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर के अपना पल्ला झाड़ लिया है। गन्गा एक माता की तरह अपने बच्चों के मल मूत्र के दायित्व को निभाने कि क्षमता तो रखती है। परन्तु भीषण जन संख्या की वृद्धि के सारे वयस्क समाज के मल मूत्र का भार पड़ने पर केवल समाज को अपना श्राप ही दे सकती है। आज के महामारि की तरह बढ़ते हुए केन्सर इत्यादि रोग गन्गा माता का श्राप ही तो हैं।

 

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