संस्कृत साधना : पाठ ३४ (आत्मनेपदी धातुएँ)

Śyāmakiśora Miśra

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#संस्कृतशिक्षण – 34 [आत्मनेपदी धातुएँ]

प्रियसंस्कृतमित्राणि नमो नमः!
गीर्वाणवाणी की उपासना में आपने अभी तक कारक विभक्तियों, विशेष्य विशेषण, सर्वनाम विशेषण, अकर्मक सकर्मक क्रियाओं, दसों लकारों इत्यादि के विषय में जाना है और अभ्यास भी किया है। यदि आपने निष्ठापूर्वक अभ्यास किया होगा तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि संस्कृत की वाक्यरचना से आपका पूर्ण परिचय हो गया होगा। छात्र भी धनुर्वेद सीखने वाले योद्धा की भाँति होता है, जैसे ‘वशिष्ठधनुर्वेद’ नामक ग्रन्थ में उसके लिए परिश्रम की ही प्रशंसा की गई है, वैसे ही आपको भी अभ्यास में परिश्रम करना चाहिए-

श्रमेण चित्रयोधित्वं श्रमेण प्राप्यते जयः।
तस्माद् गुरुसमक्षं हि श्रमः कार्यो विजानता॥

श्रम से ही अद्भुत योद्धा बना जा सकता है, श्रम से ही विजय प्राप्त होती है, इसलिए सिद्धान्तों को जानते हुए, गुरु के समक्ष ही अभ्यास करना चाहिए।( सौवाँ श्लोक)

1) आपको स्मरण होगा कि प्रारम्भिक पाठों में हमने बताया था कि जब ‘भू’ आदि धातुओं से भवति भवतः भवन्ति आदि क्रियापद बनाते हैं तो उनमें ‘तिङ्’ प्रत्यय जोड़कर ही ये रूप बनते हैं।

2) उन तिङ् प्रत्ययों में से पहले नौ प्रत्यय ‘परस्मैपदी’ कहे जाते हैं और अन्तिम नौ प्रत्यय ‘आत्मनेपदी’। यह परस्मैपद और आत्मनेपद महर्षि पाणिनि जी के द्वारा बनाये गये पारिभाषिक शब्द हैं। जैसे पाण्डु के सभी पुत्रों को ‘पाण्डव’ कहकर काम चला लिया जाता है वैसे ही परस्मैपद और आत्मनेपद कहकर नौ नौ प्रत्ययों का नाम ले लिया जाता है, अलग अलग अट्ठारहों प्रत्यय नहीं गिनाना पड़ता।

3) परस्मैपद प्रत्ययों के जुड़ने पर जिस प्रकार के रूप बनते हैं वह आपने भू धातु के अभ्यास से जान लिया। भू धातु परस्मैपदी होती है, अतः उसमें परस्मैपद प्रत्यय तिप् तस् झि आदि जुड़े। अब एक धातु आत्मनेपदी बतायेंगे। उसके रूप किस प्रकार से चलते हैं यह आप देख लीजिएगा। ऊपर जो वशिष्ठधनुर्वेद से श्लोक उद्धृत किया है, उसमें ‘प्राप्यते’ क्रियापद आत्मनेपदी है। आत्मनेपद प्रत्यय देख लीजिए –

त आताम् झ
थास् आथाम् ध्वम्
इट् वहि महिङ्

जब किसी धातु में इन्हें जोड़ते हैं तो इनमें कुछ परिवर्तन हो जाता है, देखिए ये इस प्रकार हो जाते हैं-

अते एते अन्ते
असे एथे अध्वे
ए आवहे आमहे

मुद् हर्षे (प्रसन्न होना) धातु, आत्मनेपदी

लट् लकार

मोदते मोदेते मोदन्ते
मोदसे मोदेथे मोदध्वे
मोदे मोदावहे मोदामहे

लुङ् लकार

अमोदिष्ट अमोदिषाताम् अमोदिषत
अमोदिष्ठाः अमोदिषाथाम् अमोदिध्वम्
अमोदिषि अमोदिष्वहि अमोदिष्महि

लङ् लकार

अमोदत अमोदेताम् अमोदन्त
अमोदथाः अमोदेथाम् अमोदध्वम्
अमोदे अमोदावहि अमोदामहि

लिट् लकार (केवल प्रथम पुरुष)

मुमुदे मुमुदाते मुमुदिरे

आपको लगता होगा कि हे भगवान् इतने सारे क्लिष्ट उच्चारण वाले रूप कैसे और कितने सारे याद करने पड़ेंगे ? तो डरिये मत ! मा भैषीः ! आपको किसी एक प्रतिनिधि धातु के रूप किसी प्रकार याद कर डालने हैं बाकी सभी आत्मनेपदी धातुओं के रूप इसी प्रकार चलेंगे। यदि आप प्रत्येक रूप पर आधारित कम से कम एक दो वाक्य बनाकर अभ्यास कर डालें तो ये शीघ्र याद हो जाएँगे। फिर तो आपको आनन्द ही आनन्द आयेगा।

4) आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह कैसे पता चलेगा कि कौन सी धातु परस्मैपदी है और कौन सी आत्मनेपदी अथवा उभयपदी ? तो यह पता चलता है धातुपाठ को पढ़ने से। उभयपदी धातुएँ वे होती हैं जिनके रूप दोनों प्रकार से चलते हैं। अगले पाठों में धातुओं के विषय में यह सब निर्देश कर दिया करेंगे।

5) आगे के पाठों में हम केवल रूपों का संकेत मात्र कर दिया करेंगे, उसी प्रकार से बहुत सी धातुओं के रूप चलेंगे।
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वाक्य अभ्यास :
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बच्चे लड्डुओं से प्रसन्न होते हैं।
= बालकाः मोदकैः मोदन्ते।

मैं सेवइयों से प्रसन्न होता हूँ।
= अहं सूत्रिकाभिः मोदे।

तुम किससे प्रसन्न होते हो ?
= त्वं केन मोदसे ?

मुझे देखकर तुम प्रसन्न हुए थे।
= मां दृष्ट्वा त्वम् अमोदिष्ठाः।

मैं भी प्रसन्न हुआ था।
= अहम् अपि अमोदिषि।

वे भी मेरे आगमन से प्रसन्न हुए थे।
= ते अपि मम आगमनेन अमोदिषत।

कल बच्चों का खेल देखकर तुम क्यों प्रसन्न नहीं हुए ?
= ह्यः खेलां दृष्ट्वा त्वं कथं न अमोदथाः ?

मैं तो कल बहुत प्रसन्न हुआ था।
= अहं तु ह्यः बहु अमोदे।

वे बच्चे भी कल बहुत प्रसन्न हुए थे।
= ते बालकाः अपि ह्यः बहु अमोदन्त।

हनुमान् को देखकर सीता प्रसन्न हुईं।
= हनूमन्तं दृष्ट्वा सीता मुमुदे।

राम और लक्ष्मण को देखकर ऋषि प्रसन्न हुए।
= रामं लक्ष्मणं दृष्ट्वा ऋषयः मुमुदिरे।

॥शिवोऽवतु॥

4 thoughts on “संस्कृत साधना : पाठ ३४ (आत्मनेपदी धातुएँ)”

  1. लेकिन यह कैसे पता चलेगा कि कौन से वाक्यों में परस्मैपदी धातु लगेगी और कौन से वाक्यों में आत्मनेपदी ।।

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